सहज बनो
नदी कहे पर्वत से तू क्यों बड़ा बहुत दर्शाता है
छोटा सा ये मानव जूती संग सिर पे चढ़ जाता है
जो झुकना ना जाना अब तक पाया ना सम्मान कभी
झुकने वाले फलित वृक्ष का लेता दिल से नाम सभी
तू कठोर इतना होकर दुख देता है हर प्राणी को
कंकण बनकर पाँव में चुभता तोड़ के पाता पानी को
राह नहीं देने से तुमको मार के तोड़ा जाता है
नीर की शीतलता से हर प्राणी तन का सुख पाता है
प्रीति प्यार की भाषा तुमको कभी नहीं आई है
परहित में जीने की सीख न कभी किसी से पाई है
सहनशीलता ,प्यार, नम्रता हम नदियों से सीखो तुम
परोपकार के भाव दिलों में खुद भी रखना सीखो तुम
मैं देती हूँ राह सभी को कभी नहीं मैं अड़ती हूँ
बिना वार के काट तुम्हारे जैसों से लड़ती हूँ
प्रस्तरयुत बनकर हे प्राणी जीवन जीना नहीं कभी
सहनशीलता ,प्यार, नम्रता का रखना तुम भाव सभी