ह्रदय परिवर्तन
अपने संस्कारों वेद, पुरान आदि धर्म गर्न्थों के कारण भारत विश्व में " विश्वगुरु" कहलाता है. हिन्दू धर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है आज उसी हिन्दू धर्म के मूल्य ,संस्कार को पाश्चात्य सभ्यता के दानव ने अपने पाश में जकड लिया है . इन मूल्यों ,संस्कारों को पश्चिमीसभ्यता रुपी राक्षस से मुक्त कराने के लिए क्या परिवर्तन लाने होंगे, यह आज की पीढ़ी को बताना अति आवश्यक है.
परिवर्तन का मतलब सिर्फ नई चीजों का आना नहीं है परिवर्तन का मतलब पुराने संस्कारों का पुनर्स्थापन होना है. भारतीय मूल्यों को पुराना समझ छोड़ ने पर बार-बार उन्ही मूल्यों की वजह से जीवन में हार होती रहती है परन्तु यह हार पाश्चात्य जीवन शैली बिताने वालों को जीत प्रतीत होती है क्यूंकि उनके लिए मांस, मदिरा, धन और स्त्री गमन के अलावा जीवन की कोई परिभाषा ही नहीं होती है। मेरा विषय
सामाजिक कुरीतियों और समस्याओं को प्रकाशित कर उनको जड़ से हटाने की एक छोटी सी कोशिश मात्र है। वैसे ही जैसे रविन्द्र नाथ टैगोर ने डूबते हुए सूरज को देख कर कुछ बहुत सुंदर पंक्तिया लिखी थी। जो यहाँ प्रस्तुत है-
सामाजिक कुरीतियों और समस्याओं को प्रकाशित कर उनको जड़ से हटाने की एक छोटी सी कोशिश मात्र है। वैसे ही जैसे रविन्द्र नाथ टैगोर ने डूबते हुए सूरज को देख कर कुछ बहुत सुंदर पंक्तिया लिखी थी। जो यहाँ प्रस्तुत है-
" सांध्य रवि ने कहा - मेरा काम लेगा कौन? सुनकर सारा जगत रह गया मौन , एक छोटे से माटी के दीपक ने कहा- जितना हो सकेगा मै करूँगा नाथ।"
कुछ वर्ष पहलेकी बात है। एक सनातनधर्मी सदाचारी पुराने विचारोंके घरकी लड़कीका विवाह भाग्यवश एक कालेजसे निकले मनचले अविवेकी लड़केसे हो गया।लड़की सुन्दर थी, पढ़ी-लिखी भी थी,घरका सारा कामकाजमें निपुण थी।सास-जेठानी-सबकी आज्ञा मानती, घरमें सबके साथ आदरसम्मानका बर्ताव करतीतथा सबको प्रसन्न रखती थी। प्राणपणसे स्वामीके संकेतके अनुसार चलना चाहती और चलती भी थी।
परंतु उसमें (पति के भावनानुसार) पाँच दोष थे- वह प्रतिदिन भगवान् के चित्रकी पूजा करती, मांस-अण्डे नहीं खाती,पर पुरुषोंका स्पर्श नहीं करती,बुरी-गन्दी पुस्तकें नहीं पढ़ती और सिनेमा नहीं जाती। ये पाँचों बातें वह अपने नैहरसे सीखकर आयी थी और उसके स्वभावगत हो गयी थीं। पति भी उसको वैसा ही मानता, पर यही पाँच बातें ऐसी थीं जो पतिको बड़ी अप्रिय थीं वह बार-बार इनके लिए पत्नीको समझाता। वह पहले-पहल तो इन बातोंके दोष बतलाती, समझाना चाहती, पर इससे पतिदेवके क्रोधका पारा बहुत चढ़ जाता। वह समय-समय पर निर्दोष बालिकाको मार भी बैठता। गाली-गलौज बकना-उसके माँ-बापको बुरा-भला कहना, डाँडना-डपटना तो प्राय: रोज ही चलता था। इसलिये उसने समझाना तथा दोष बतलाना तो छोड़ दिया।
वह जान गयी कि ये इन बातों को अभी नहीं माननेवाले हैं। अत: वह विरोध न करके बड़ी नम्रतासे इन्हें माननेमें अपने असमर्थता प्रकट करने लगी। बहुत कहा-सुनी होनेपर उसने पतिके साथ सिनेमा जाना तो स्वीकार कर लिया; परंतु शेष चार बातें नहीं मानीं। इसपर उसके पतिदेव बहुत ही नाराज हो गये; वह ऐसी पिछ्ड़ी हुई स्त्रीसे अपना विवाह होनेमें बड़ा अभाग्य मानने लगा तथा उसके साथ बड़ा र्व्यवहार करने लगा। कई वर्ष यों बीते। उसका द्वेश बढ़ता गया और उसमें घोर पापमूलक हिंसावृति पैदा हो गयी।
एक दिन दोपहरको किसी ट्रेनसे कहीं जानेकी प्रोग्राम बना। पहले दर्जेकी दो टिकटें खरीदी गयीं। पत्नीको लेकर बाबूसाहब ट्रेनमें सवार हुए। उन दिनों भीड़ कम होती थी। पहले दर्जेके एक खाली डिब्बेमें पत्नीको लेकर वह बैठ गया। कुछ दूर जानेपर जब गाड़ी वेगसे जा रही थी-उसने डिब्बेका फाटक खोला और किनारेकी सीटपर बैठी हुए पत्नी को धक्का देकर बाहर गिरा दिया।
बेचारी अकस्मात् धक्का खाकर नीचे गीर पड़ी। भाग्यसे बगलके एक सज्जन बाहर की ओर सिर निकाले थे। उन्हेंने एक तरुणी स्त्री को गिरते देखकर जंजीर खिंची; जंजीर में कुछ जंग लगा था, इससे पूरा खींचनेमें कुछ देर लग गयी। इतनेमें गाड़ी दो-तीन मील आगे बढ़ गयी। गाड़ी रुकी। उस बाबूने सोचा था, मर गयी होगी। कह दिया जायगा-‘खिड़की अकस्मात् खुल गयी, वह खिड़कीके सहारे किसी कामसे खड़ी थी,अचानक गिर पड़ी।’ पर गाड़ी रुकते ही अपने पापसे उसका हृदय काँप गया। आस-पासके लोग इकट्ठे हो गये। गार्ड आया। उसने रोनी सूरत बनाकर सोची हुई बात गार्डसे कह दी। गाड़ी उलटी चलायीगयी। वहाँ पहुँचनेपर देखा गया-वह मरी तो नहीं है, पर चॊट बहुत जोरसे लगी है।
उसको जीती देखकर इसका बुरा हाल हो गया। सोचा, अब यह असली बात कह ही देगी और इससे लेनेके देने पड़ जायँगे। उसका पूरा शरीर काँपने लगा; आँखोंसे अश्रुओंकी धारा बह निकली। लोगोंने समझा, पत्नीके बुरी तरह घायल हो जानेके कारण यह रो रहा है। लोग उसे समझाने लगे।
लड़कीको मरणासन्न देखकर मैजिसट्रेटको उसके आखिरी बयानके लिये बुला लिया। उसका पति तो अपने भविष्यकी दुर्दशाको सोचता हुआ अलग बैठा रो रहा था; समीप आनेकी भी उसकी हिम्मत नहीं थी। मैजिस्ट्रेट्ने आकर लड़कीका बयान लिया।उसने कहा-‘ साहेब! मुझे मिर्गीका पुराना रोग था, मैं लघुशंकाको गयी थी। लौटकर कुल्ला करने जा रही थी, इतनेमें मिर्गीका दौरा आ गया। फाटक खुला था, मैं बेहोशीमें नीचे गिर पड़ी और मुझे चोट लग गयी।’
मैजिस्ट्रेटने घुमा-फिराकर पूछा-‘तुम्हारे पतिने तो धक्का नहीं दिया न?’ वह रोते-रोते बोली-‘राम-राम! वे बेचारे धक्का क्यों देते, वे तो इस समय बहुत दु:खी होंगे। उन्हें बुलाइये मैं उनके आखिरी दर्शन करके चरणोंमें प्रणाम कर लूँ।’
इस बीच वह समीप आ गया था। वह यह सब सुनकर दंग रह गया और उसके हृदयमें एक महान् वेदना पैदा हो गयी। डरके बदले पश्चातापकी आग जल उठी।‘हाय! कहाँ मैं घोर नीच, कहाँ यह परम साध्वी, जो इस मरणासन्न अवस्थामें भी सावधानीके साथ मुझ नीचको बचा रही है।’ वह चीख उठा। लोगोंने खींचकर समीप कर दिया। लड़कीने उसको देखा, चरण छुए और वह सदाके लिए चल बसी ! उस युवकके जीवनमें महान् परिवर्तन हो गया। वह इन सारे दुर्गुणोंको छोड़कर साधुस्वभाव हो गया। उसने इस पापका प्रायश्चित करनेके लिए पुन: विवाह न करके ब्रह्मचारी-जीवन बितानेका निश्चय किया। उसीने यह सब बातें लोगोंको बतायीं। छ: महीने बाद ही वह लापता हो गया।शायद इसीलिए बेटी के जन्म के समय से ही विवाह के लिए बेटी के माता पिता उसके जीवन और भविष्य को लेकर परेशान एवं चिंताग्रस्त रहते हैं. उनकी चिंता बेटी के दुसरे घर जाकर रहने से सम्बंधित होती है .
हर बेटी को अपने जन्म-दाता माता-पिता को छोड़ कर अपने पति के माता -पिता के पास रहना होता है. इसलिए भारतीय मूल्यों में पली-पोसी बेटी के माता-पिता को चिंता रहती है कि यदि उनकी लाडली को अनुकूल सास ,अनुकूल पति और ससुराल नहीं मिला तो उनकी लड़की प्रतिकूल पाश्चात्य जीवन में कैसे अपने मूल्यों की रक्षा कर सकेगी? जब माता-पिता को यह पता चलता है कि बेटी के ससुराल वालों ने छल -कपट और झूठ के बल पर सामाजिक प्रदर्शन हेतु विवाह किया है तो वो खुद भी अपनी बेटी से ज्यादा सदमा ग्रस्त हो जाते हैं . कुछ मामलों में लड़की के माता पिता पाश्चात्य जीवन शैली के अनुयायियों के विरुद्ध जेहाद छेड़ बेटी के ससुराल वालों की ईंट से ईंट बजा देते हैं और कुछ मामलों में लड़की से हाथ धो बैठते हैं.
हमारे आस-पास ऐसी अनगिनत घटनाएँ अभी भी जारी हैं जिसमे पति को ये लगता है कि उसने पत्नी को पराजित कर दिया? परन्तु अपने पति को सही मार्ग पर चलाना सिखाने के लिए भारतीय पत्नी मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए पत्नियाँ हारती है या जीतती है यह इस कथा से स्पष्ट है।
यह कहानी "कल्याण" के अंक से ली हुई सच्ची घटना पर आधारित है.
सार्थक और जरुरी पोस्ट आँखें खोलने में सक्षम .......
ReplyDeleteमानव मन को झकझोरने वाला एक कहानीनुमा लेख देने के लिए आपका आभार !!
ReplyDeletebadhiya post
ReplyDeleteGyan Darpan
सार्थक प्रयास....
ReplyDeleteहमारे भारतीय परिवेश की ये दुखद स्थिति रही है की हम बिना किसी कार्य के परिणाम को जाने उसका अनुसरण करने लगते हैं..
जहाँ एक ओर पाश्चाह्त्य देश हमारी भारतीय संस्कृति से प्रेरित हो उसे अपना रहे हैं वही दूसरी ओर हम भारतीय अपनी सभ्यता को भूल नारी समाज को अपमानित कर.. पाश्चाह्त्य सभ्यता की ओर तेजी से बढ रहे हैं .. ये बेहद सोचनिये विषय बन गया है की इससे कैसे पीछा छुड़ाया जाये ...
कहानी उत्तम है ! मन को दुखी करणे वाली भी है इस कहानि को पढ़ने के १ घण्टे तक मन मे सोचता ही रहा आखिर भारत मे नारी की इस दशा के लिये जिमेदार कौन है ? नारी को तो हर युग मे परीक्षा से गुजरना पडा है
ReplyDeletekabhi kabhi hasya ke aalekh ya kavita bhi likhe hamesha gambhir sochana bhi thik nahi
ReplyDeletevery nice ji
ReplyDeleteToo good....
ReplyDeleteआप सभी sensitive सुधीजनों की प्रतिक्रियाएँ और प्रोत्साहन हेतु हार्दिक धन्यवाद.
ReplyDeletemujhe patni ki bhi galti lag rahi hai, usko aise vyavahar nahi karna tha, kyonki baat uske maut tak aa chuki thi... usko jabab dena hi chahiye tha...!!
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