भारतीय जेल व्यवस्था
जेल व्यवस्था भारतीय संविधानका एक महत्वपूर्ण अंग है जेल अर्थात कारागार या सुधार गृह ।जेल व्यवस्था दो प्रकारों में विभाजित किया गया है-साधारण और विशेष जेल । साधारण जेल आम कैदियों के लिए होती है और विशेष जेल कुख्यात अपराधियों, राजनीतिक अपराधियों के लिए उपलब्ध करायी जाती है. वास्तव में कारावास तो केवल साधारण अपराधियों के लिए है विशेष श्रेणी के अपराधियोंके लिए कारागार तो सुरक्षित आराम गृह और पुलिस व दूसरे गैंगो से बचने का सुरक्षित स्थान मात्र ही है । बडे अपराधी मुठभेड़ से बचने और दूसरे गैंग का सफाया करने के लिए जेल जाते हैं ताकि अपनी सुरक्षा सुनिश्चित हो सके यही कारण है कि भारत के बड़े से बड़े गैंग चलाने वाले अपराधी जब आराम करना चाहते हैं या जब पुलिस का जो जेलर अपराधियों के साथ अच्छा तालमेल बिठा लेते हैं वे तो अपराधियों के कृपा पात्र बनकर अच्छी खासी कमाई कर लेते हैं.
भारतीय जेल व्यवस्था में दिल्ली की तिहाड़ जेल एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में जाना जाता है ।तिहाड़ जेल सुधार गृह के रूप में भी जाना पहचाना जाने लगा था । मैडम किरण बेदी जी देश की प्रथम महिला आई॰पी॰एस॰ अधिकारी तिहाड़ जेल की अधीक्षक ने कैदियों को सुधारने के लिए जो कार्य किये वे अपने आप में उत्कृष्ट उदाहरण हैं. भारतीय जेल व्यवस्था में दिल्ली की तिहाड़ जेल. मैडम किरनबेदी जी के समय में तिहाड़ जेल में कैदी शिक्षा प्राप्त करने लगे थे. कैदी खेल भी खेलते थे.
जिनमें कुश्ती, दौड आदि खेलकर एक अपराधी अपने अपराध की दुनिया से पहले के समय में लौटकर अपनी पुरानी याद ताजा करता था पढाई करके वह अपना बीता समय याद कर अपराध की दुनिया से नाता तोड़ पुनः सामान्य जीवन जीने की कला सीख गए थे. मधुर स्वस्थ्य वातावरण मस्तिष्क को सूक्ष्म और स्थूल रूप दोनों ही रूपों में प्रभावित करता ही है. किरण बेदीजी के विचारों का प्रभाव कैदियों के मस्तिष्क को सकारात्मक ऊर्जा से सराबोर करने में सहायक सिद्ध हुआ और परिणामस्वरूप उन्होंने आपराधिक वातावरण से संबंध तोड़ कर एक सच्चे नागरिक का जीवन जीना शुरू कर दिया ।
भारतीय जेलों में आम अपराधी से मिलने के लिए कई औपचारिकताओं से गुजरना पड़ता है ।उसमें भी एक या दो व्यक्ति ही मुलाकात कर सकते हैंऔर खाने की व्यवस्था आम अपराधी को कैदियों की जैसी ही होती है । आम कैदी को खाना बनवाना, बर्तन साफ कराना व साफ-सफाई शौचालय आदि की सफाई भी आम कैदियों द्वारा की जाती है. प्रमुखतः, जेल कार्य के अन्तर्गत जेल अस्पताल में कार्य करने वाले बंदी, रसोइये, नाई, धोबी, कार्यालय और भंडार गृहों में कार्य करने वाले साधारण बंदी, बागवानी करने वाले बंदी आते हैं।इसके अतिरिक्त, इस श्रेणी में बंदी शिक्षक, बंदी मिस्त्री, कनविक्ट नाईट भी आते हैं, जिन्हें उनका पारिश्रमिक भी दिय जाता है। यह उपचार छोटे कैदियों के लिए तो सजा से भी बढ़कर होताहै।
जेल केवल आम अपराधी के लिए ही जेल है माफियाओं के लिए तो जेल गैंग चलाने का अड्डा है। जो जेलर अपराधियों के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते ,सिद्धान्त, वसूल, मूल्यों की दुहाई देते हैं वे या तो किसी अन्य जेल में स्थानान्तरित करा दिये जाते हैं या फिर माफियाओं के क्रोध का शिकार हो जाते हैं ।
बॉलीवुड फिल्मों में कारागार का चित्रण
यह भजन फिल्म दो आंखें बारह हांथ फिल्म से है, फिल्म यह प्रेरणा देती है कि समाजसुधार में आध्यात्मिक बल का उत्कृष्ट योगदान होता है, इसमें हमें आत्म सुधार देखने को मिलता है. पूरी फिल्म में केवल तीन लोकेशन हैं, जेल, खुली जेल और सब्जी बाजार. इन तीनों स्थलों को कैमरे की गहरी नज़र से देखकर हम तक फिल्म के सन्देश पहुँचाने की भरपूर कोशिश की है. फिल्म में वसंत देसाई का पार्श्वसंगीत असरदार नहीं है लेकिन सभी गानों के संगीत में मधुरता है.
जेल में फिल्माए गए दृश्य अत्यंत प्रभावोत्पादक हैं. आदिनाथ का जेल में प्रवेश करते समय जेल के दरवाजे पर लटके ताले का झूलते रह जाना, प्रतीकात्मक रूप से बहुत कुछ कह जाता है. संध्या को कथानक में 'फिलर' के रूप में इस्तेमाल किया गया है जो गीत और संगीत पक्ष की आवश्यकता को बखूबी पूरा करता है.
'ऐ मालिक तेरे बन्दे हम' के अतिरिक्त लता मंगेशकर का गाया गीत 'सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला' हिंदी फिल्म के सर्वाधिक कर्णप्रिय गीतों में से एक है. गीत 'ऐ मालिक तेरे बन्दे हम, ऐसे हों हमारे करम, नेकी पर चलें आज भी प्रत्येक संस्कार-.
बीसवीं शताब्दी में यह विचार विकसित होने लगा कि जेल को सजा देने वाली जगह के बदले उसे सुधारगृह बनाया जाए ताकि अपराधी को जेल से छूटने के बाद पुनः अपराधी बनने से रोका जा सके और सजा पूरी होने के बाद वह सम्मान से अपना शेष जीवन व्यतीत कर सके. समाजशास्त्रियों की इस पहल को विश्व भर सरकारों ने समझा और जेलों को सुधारगृह के रूप में परिवर्तित करने की सार्थक कोशिश की है. यह कोशिश अभी भी जारी है लेकिन प्रयोग के स्तर पर है. इस प्रयास की सफलता और असफलता, दोनों किस्से सामने आए हैं. वे मुजरिम जो सुधरना कहते थे, सुधरे और आत्मनिर्भर बने लेकिन नकारात्मक सोच वाले अपराधियों ने जेल को भी अपना अपराधिक कर्मभूमि बनाया और अपनी शक्ति का संवर्धन किया. फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' उस आशावाद की कहानी है जो बुराई में अच्छाई खोजती है और यह मानकर चलती है कि मनुष्य बुरा नहीं होता, उसका कर्म बुरा होता है. हमें अपराधी से नहीं, अपराध से घृणा करनी चाहिए.
आपने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है. ऐसे ही आप अपनी कलम को चलाते रहे. Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.
ReplyDeleteभारतीय जेलों की दशा बहुत अधिक भयावह और दयनीय है। और सबसे अफ़सोस की बात है कि ये किसी की भी प्राथमिकता में है ही नहीं।
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