हृदय परिवर्तन
फिल्म की शुरुआत एक जेल के दृश्य से होती है. जेल का सुपरिंटेंडेंट जालिम है, कैदियों से अमानवीय व्यवहार करता है. वहां का जेलर आदिनाथ सरल और क्षमाशील व्यक्ति है. जेलर ने उच्चाधिकारियों से छः सजायाफ्ता अपराधियों को जेल से छोड़ने की अनुमति माँगी है ताकि वह उन कैदियों को खुले में रखकर उनका हृदय परिवर्तन करके उन्हें अच्छा नागरिक बनाया जा सके. इस प्रयोग के लिए उन्हें जेलर से अनुमति मिल जाती है और हत्या के आरोप में सज़ा काट रहे छः दुर्दांत अपराधियों को वह अपने साथ ऐसी जगह में ले जाता है जहाँ उनके लिए जेल नहीं, खुला वातावरण मिलता है. जेलर आदिनाथ उन्हें लगातार प्रयासों से व्यवस्थित करता है, उनके कुत्सित विचारों से उन्हें दूर करता है. कई ऐसी घटनाएं होती हैं जब यह प्रयोग असफल होता दिखता है लेकिन उन अपराधियों को जेलर की दो अदृश्य आंखें हर बार गलतियां करने से रोकती हैं. कथानक में कई उतार-चढ़ाव आते हैं, अपराधी चूकते भी हैं, सँभलते भी हैं. अंत उन कैदियों की सांड के आक्रमण से रक्षा करते हुए जेलर आदिनाथ के प्राण चले जाते है. आदिनाथ के त्याग से प्रभावित होकर सभी अपराधियों का हृदय परिवर्तित हो जाता है और वे सभी आदर्श नागरिक की तरह जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेते हैं.
ऐ, मालिक, तेरे बंदे हम ऐसे हों हमारे करम नीति पर चलें और बदी से टलें ताकि हँसते हुए निकले दम..बड़ा कमज़ोर है आदमी अभी लाखों हैं इसमें कमी पर तू जो खड़ा है दयालु बड़ा तेरी कृपा से धरती थमी.दिया तूने हमें जब जनम तू ही झेलेगा हम सबके ग़म नेकी पर चलें और बदी से टलें ताकि हँसते हुए निकले दमजब ज़ुल्मों का हो सामना तब तू ही हमें थामना वो बुराई करें, हम भलाई भरें नहीं बदले की हो कामना बढ़ उठे प्यार का हर क़दम और मिटे बैर का ये भरम नेकी पर चलें और बदी से टलें ताकि हँसते हुए निकले दम…
लगान फिल्म में भी सच्चाई का ही बल और पुरुषार्थ और माँ का बच्चे के साथ मनोबल के रुप में खड़ा होना मूल तत्व के रुप में है। जबतक व्यक्ति आत्मज्ञान हेतु प्रयास नहीं होता तब तक व्यक्ति गलत राह में भटक सकता है।
आत्मा : शरीर रूपी पिंजड़े में कैद
वैसे तो विस्तार से देखें तो हम सभी इस संसार में कैदी ही हैं और यदि आध्यात्मिक स्तर पर देखें तो हमारी आत्मा विभिन्न प्रकार के बंधनों से बंधी हुई इस शरीर रूपी पिंजड़े में कैद है।पिंजरे के पंछी तेरा दर्द न जाने कोई बाहर से तो खामोश रे हैतू
संगीत उपचार
तुलसीदासजी कहते हैं- “सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।पारस परस कुधात सुहाई” अर्थात दुष्ट प्राणी भी अच्छी संगति पाकर सुधर जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुंदर चमकीला हो जाता है.
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