Sunday, October 21, 2012

कन्या पूजन vs कन्या भ्रूण हत्या

कन्या पूजन vs कन्या भ्रूण हत्या  



बहुत  से विचारकों , अन्वेषकों ने इस बात पर अपने विचार व्यक्त किये है मै भी इस विषय पर बहुत  दिनों से    अपने विचार  अभिव्यक्त  करना चाह रही थी पर शायद शब्दों का चयन  भावों  के उमड़ते सागर में कम था. कई  छोटे -बड़े हादसे, दूसरों का छोटी  सी बात का राई  का पहाड़ बनना और स्वयं की बड़ी सी बड़ी बात को नजर अंदाज कर देना असहज और अन्याय संगत सा लग रहा था. परेशान , विचलित  मन खुद को ही पीड़ा  दे रहा था. सामाजिक और नैतिक मूल्यों के परिवर्तन  के इस दौर में सामान्य भारतीय जन मानस को बहुत क्षति पहुंची है।  भौतिक वादी दृष्टि कोण जन मानस पर इतना ज्यादा हावी हो चूका है की  साधू और शैतान की लड़ाई ही खत्म सी होती जा रही है।यह  में अपने पिछले लेख में भी लिख चुकी हूँ कि ये साधू और शैतान के बीच की लड़ाई ही है जो अच्छाई और बुरे में भेद बताती है तथा सदाचार स्थापित रखती है और अनाचार रोकती है जिससे  व्यक्ति अनुशासन और मर्यादा में रहता है।पुरुषों की प्रकृति स्त्रियों के अनुपात में अधिक आक्रामक  होती है और  पुरुष स्त्रियों की तुलना में अधिक अभिमानी होता है. पुरुष में अहंकार के ही कारण  नकारात्मक भाव आते है।यह बात मै  उस व्यक्ति विशेष के लिए यह  कह रही हूँ जो स्त्री को वस्तु समझते हैं.  

यद्यपि हर व्यक्ति में पुरुष और स्त्री दोनों ही भाव एक सामान रहता है परन्तु जब पुरुषों में स्त्रियान भाव आता है तब वो महान बन जाता है।शायद इसीलिये नवरात्री में नौ दिन शक्ति का पूजन और कन्या पूजन का विशेष विधान होता है  ताकि दया, करुना ममता वात्सल्य, स्नेह , अनुराग  भगवती से आशीष स्वरुप मिल सके   अन्यथा के दौर में तो लोग अपनी शक्ति का प्रयोग ऐसे कार्यों में करने लगे है कि शक्ति की पूजा नहीं शक्ति का अपमान होने लगा है। आज भी कन्या भ्रूण  हत्याबलात्कार, बालक- बालिका में भेद- भाव, स्त्री शोषण ,दहेज़ प्रथा , सामूहिक बलात्कार, महानगरों  में खुलेआम live in relationship रुपी  हो रहा  मात्र शारीरिक व्यवसाय, तलाक , तलाक के बाद अपने आपको स्वत्रन्त्र बताकर विभिन्न सुंदरियों के साथ  करने की छूट जेसी परम्पराओं का पालन करने वाले  लोग हमारे समाज में हैं.

वहीँ दूसरी और लड़की को लड़कों से ज्यादा प्यार और स्नेह देने वाले भी हमारे  समाज में ही है.मन अभी भी धारावाहिक "सत्यमेव जयतेमें प्रकट किये हुए इस वीभत्स सत्य पर  मंथन कर ही रहा था कि  एक बारह  साल की कक्षा आठ की  मेधावी , इन्ननोसेंट  बालिका को उसके पडोसी ने गर्भवती  कर दिया और वह  बालिका यह सब कुछ समझ ही नहीं पाई ,उसके माता- पिता  स्वयं की लज्जा  वश समाज में  खुले आम घूम रहे  उनकी बेटी के दोषी दुर्योधन को सजा भी नहीं दिला पा रहे।  इस बारह वर्ष की बालिका का क्या दोष था? युवतियों के साथ बलात्कार की वजह छोटे कपडे हो सकते हैं परन्तु  इस कच्चे घड़े अपरिपक्व  तन और मन के साथ ऐसा व्यवहार तो शर्मनाक ही है। इसे पुरुष का वहशीपन , विकृत मानसिकता और महिलाओं को  वस्तु समझने का भाव ही कहा जायेगा जब जब पुरुषों  में पाशविक भावनाए (पशु -प्रवृत्ति ) हावी रहती है ऐसे शर्मसार कुकर्मों से मानव जाती पर कलंक लगता रहता है। 

इसी तरह अभी- अभी असम  में हुई  सामूहिक बलात्कार की घटना हो या  इंदौर में छः वर्षीय बालिका के साथ अप्राक्रतिक यौनाचार  कर उसे बिना पानी के जान से मार देना  पढ़कर  इन्सान को इन्सान कहने में शर्म  महसूस  होतीहै । पश्चिमी अनुकरण ,खान पान और नशीले पदार्थों, ड्रग्स आदि के सेवन  से दिलो -दिमाग  में इतना प्रदूषण चूका है इन्सान इन्सान कहलाने लायक ही नहीं बचा है। 

 इसी तारतम्य  में , दहेज़ प्रताड़ना  द्वारा  नयी- नवेली दुल्हन को आग लगा कर मार  डालने कि घटना समाचार पत्रों में पढ़ी और टेलीविजन पर  देखी  सुनी तो लगा कि वह 'शक्ति स्वरूपा' जिसे चार दिन पहले ही ब्याह कर लाया गया हो उसे किसी माता -पिता ने बिना लिंग भेद  बिना भेद -भाव के पा ला पोसा और इस काबिल बनाया कि वो  सक्षम बन सके और फिर तुम्हे सौंप दिया यह कहकर कि मेरी  नन्ही कलि  मेरी बगिया वीरान कर तुम्हारा चमन खिलने चलीबेटी को छोड़ते हुए मातापिता के ह्रदय को कितनी तकलीफ होती है. इसका वर्णन  तो किया ही नहीं जा सकता और जब ससुराल में विवाह के चार दिन बाद ही अपनी लड़की  के मरने कि खबर उन्ही माता- पिता को मिलती है तो उनकी आत्मा  पर क्या बीतती होगी इसका तो शब्दों में बखान  असंभव है. क्यूंकि शब्द भाव नहीं बन सकते.

इन सभी बुराइयों पर विजयश्री कैसे हासिल की जाये यह सोच कर मन बहुत असमंजस में था। जो सब बीत गया  उसे  याद  कर  जीना , उसे मंथन करना भी तो बीते हुए क्षण को ही जीना है  एवं  अपना वर्तमान  नष्ट   करना है. वर्तमान यानि जिंदगी ...भविष्य का अंकुर.. वर्तमान की  धरा पर जिस विचार के  बीज  डाले जाते हैं  उस विचार के  बीज समय पाके  अंकुरित   होते ही हैं  और फल भी  जिस पेड़ का बीज बोया जाता है उसके फल भी देते हैं.फिर भी  मेरा मन सुधारवादी दृष्टि  कोण  का  होने कि वजह से  प्रतीक्षा रुपी उर्वरक का आलंबन लेता गया. हर अनुभवी विद्वान भी  यही राय मशवरा देता  कि धैर्य और सकारात्मक चितन से असंभव से असंभव कार्य भी सिद्ध हो जाते है और  प्रयास करना ही समस्या  का समाधान है

 अतः चिंतन -मनन   के प्रवाह  में बहते  हुए कब  उम्र रुपी  नाव  किनारे पे गयी  पता ही नहीं चला. छोटे से जीवन को जीने की महत्वाकांक्षा सभी की होती है  और अपने जीवन से अपने माता -पिता  और स्वजनों को सुख देने को भी मन लालायित रहता है क्यूंकि   इसके भाव में बड़ा होना वैसा ही सिद्ध होता है जैसे- " "बड़ा हुआ सो क्या हुआ जेसे पेड़ खजूर पंथी को छाया नहीं फल लगे अति दूर" .  अपने निश्चित पथ पर अग्रसर होने की  चाह लिए  मन कभी ये सोचता  कभी वो। जैसे महाभारत के युद्ध में अर्जुन को स्वजनों से युद्ध करने में वेदना -पीड़ा  हो रही थी और केशव उनके रथ के सारथि बन कर  उन्हें गीता का उपदेश देते हैं वेसे ही मेरा मन भी भी ढूंढता रहा एक सारथि केशव सा.

कई बार हमारे जीवन से कुछ ऐसे हादसे कुछ ऐसे लोग जुड़े होते हैं जो अपने  हमारे जीवन को अपनी उपस्थिति से  हमारा जीवन व्यर्थ  कर देते हैंहम खुले असमान में पंख पस़ार  कर उड़ने की  बजाय  जमीन पर भी नहीं चल पातेसत्य ही है जब हमारे सर पर भारी  बोझ रहेगा  तो हमारी उड़ने कि गति  कम तो ही  जाएगी . जेसे ही हमारे सर से भरी बोझा उतर दिया जाता है और सकारात्मक  माहौल मिलता है तो हमारी गति  पहले से दुगनी हो जाती हैबार बार ये  हादसे , जख्म अपने आज पर ही हावी हो  जाते है. और फिर जिंदगी चलती तो जाती है पर  हम वहीँ के वहीँ रह जाते हैं जहाँ पहले से होते हैं।  मेरा नाम जोकर का  वह मशहूर गाना   "हम  हैं वहीँ हम थे जहाँजीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ..  इस सन्दर्भ में याद गया.

यह  भारत भूमि ऋषि मुनियों की है जो की मोक्ष भूमि कहलाती है , भोग भूमि  बन रही है , दुनिया भर से इसी भारत वर्ष में लोग मोक्ष की खोज में आते है, यहाँ  शक्ति (स्त्री ) का प्रयोग भोग में नहीं बल्कि परमार्थ और मोक्ष में होता आया है। भगवती  से धन , विद्या औए बल अपने स्वार्थ हेतु नहीं परमार्थ और परोपकार में करते आये हैं परन्तु अब ये पश्चिमी अनुकरण , युवाओं का दिशा विहीन होना, धन संपत्ति का उपयोग नशा और बाहुबल का प्रदर्शन करने हेतु किया जा रहा है।

जिन्दगी का संग्राम  हम ऐसे  लोगों के साथ मिलकर नहीं लड़ सकते जो हमें ही नहीं समझते हों   एक दुसरे को समझने के लिए एक दूसरे का  वैचारिक साथ होना जरुरी होता है ना कि शारीरिक. क्यूंकि --- मन से ही मन को समझा जा सकता हैअन्यथा मात्र शारीरिक उपस्थिति तो Present body absent mind" होता है या मन बिना तो शारीरिक उपस्थिति भी निर्जीवता का उदहारण  है.

 यदि कन्या भ्रूण  हत्या,  बलात्कार, बालक- बालिका में भेद- भाव, स्त्री शोषण ,दहेज़ प्रथा , सामूहिक बलात्कार, महानगरों  में खुलेआम live in relationship रुपी  हो रहा  मात्र शारीरिक व्यवसाय, तलाक , तलाक के बाद अपने आपको स्वत्रन्त्र बताकर विभिन्न सुंदरियों के साथ एश करने की छूट जेसी परम्पराओं को  समाज से हटाने की  बिना आडम्बर रहित सार्थक  कोशिश की जाये , शिक्षा में परिवर्तन लाया जाये तो यह भारत माता पुन मोक्ष भूमि का मुकुट  शिरो धार्य  कर सकेगी अन्यथा मोक्ष भूमि भोग भूमि में बदल जाएगी और विश्व में अपना विशिष्ट सम्मान नष्ट कर लेगी .










17 comments:

  1. kya baat hai...i really appreciate ur emotions and the wordings ..well done...

    ReplyDelete
  2. आलेख बहुत ही उत्तम है सागर मे गागर भरणे वाली बात है मै स्वयम् यह अनुभव करता हु की वास्तव मे पुरुष अहन्कारी होता है महिला मे समर्पण भाव होता है धार्मिक भाव होता है आप भारत के किसी भी महानगर मे जाईये सुबह सुबह औरते आप को पीपल सिञ्चति या मन्दिर मे पूजा करती हुइ मिल जायेगी अतः आप की बात सर्वथा उचित ही है!

    ReplyDelete
  3. अगर हर पुरुष यह गम्भीरता से सोचे की उसने पैसे के अलावा अपनी पत्नी के लिये क्या किया है उसकी पत्नी के प्रति माता पिता के प्रति क्या जिम्मेदारी है तो इन सभी सम्स्याओ क निदान बहुत हद तक हो सकता है

    ReplyDelete
  4. सशक्त अभिव्यक्ति ,मानवीय मानसिक विकृति की परिचायक हैं ये घटनाएँ और यदि इनका अवलोकन करें तो पायेंगे की ये सब लोग पारिवारिक अवसाद का दुष्परिणाम झेल रहे हें |

    ReplyDelete
  5. Bahut achcha aalekh hai. Samsayaaon ka sahi ullekh hai. Ab is par bhi chintan karna hai ki isse kaise nipten...Mujhe lagat hai ki aap is disha me bhi sachchaayi se soch sakti hain.

    ReplyDelete
  6. अच्‍छा लेख।
    गंभीर चिंतन का विषय।
    आभार..........

    ReplyDelete
  7. आज समाज में व्याप्त समस्याओं का सार्थक आंकलन..अगर स्त्री और पुरुष एक एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना सीखें तो बहुत समस्याओं को निदान हो सकता है. स्त्रियों पर हो रहे अत्याचारों के प्रति समाज को जागरूक और एकजुट होना होगा. बहुत सुन्दर विचारणीय आलेख..

    ReplyDelete
  8. samaj me vidrupata hmare samaj ke hi logo ki kuritiyo ka parinam hota hai, har insan jab janm letk hai, to innosance hota hai, usaki sabase phili guru usaki maata hoti hai, maa bachcho ko jaise sansakar deti hai vaisi hi pravratiya praniyo ke man mastisk me ban taati hain, isliye samaj ko jagruk karane ke liye, matra shakti ko jagaruk hona jaruri hai, aapane sahi vasay par bahut sundar likha.

    ReplyDelete
  9. Bahoot hi achha lekh hai, in sari bato pe kam karne ki jarurat, ek kranti ki jarurat hai. Aaj ke samay me fast life ke karan guardian ka apne bachho ko proper sanaskar na dene ki saja mai manta hoon. Mai kai logon se mila hoon jisne ye apradh kiya hai aur aaj saja puri kar apradh bodh ki jindagi ji rahe hai, samaj unse duriyan jaroor bana leta hai par apne aap ko sudharne yah jo is gart me gir rahe hai unki chinta nahi kar raha ha., Yahi is samaj ki kamjori aur dosh hai

    ReplyDelete
  10. bahut hi sundar lekha hai. I like it. I totally agree. Keep it up

    ReplyDelete
  11. really wonderful.....great thinking and so meaningful

    ReplyDelete
  12. Shiksha me parivartan lana behad zaroori hai. Aj ki shiksha paddhati achchhe insaan banaane me naakaam hai. The education should be such which inculcates human values first then material subjects.

    ReplyDelete
  13. बहुत ही गंभीर विषय है और उससे भी गंभीर लेखन है . समाज पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह भी है उससे बड़ा तथाकथित समाज के ठेकेदारों पर करारा व्यंग भी है।

    ReplyDelete
  14. विचारोत्तेजक रचना!
    इन दोहरे मापदंडों का समाज में रहना और दूसरी तरफ़ कन्या पूजन जैसी प्रथा .....!

    ReplyDelete
  15. भावना बेटी
    आशीर्वाद
    आपका लेख पढ़ा लेख में पश्चमी परिधान का वर्णन भी पढ़ा |पर यह तो भारत का ही कम वस्त्र परिधान है जैसे पुराणों में पढ़ा राजा इंद्र के दरबार में षोडशी नृत्य,सभा,अहिल्या का कूबड़ ,अजंता अलोरा पर उकेरी मूर्तियाँ,दोप्दी के पांच पति और भरी सभा में नग्न तब भी तो ऋषि मुनि तपस्वी थे उस सभा में किसी ने क्यों नहीं विरोध किया|कुंती के पुत्र कर्ण का जन्म विवाह पूर्व होना |यह आज से नहीं सदियों से चला आया है भारत में ही नहीं हर समाज में |नियम नहीं जिसका पालन किया जाया इसी पर छोटे भाई कीर्ति अग्रवाल जी की पंक्तियाँ
    Kirtivardhan Agarwal
    ‎"प्यार " मात्र अढाई अक्षर का संसार नहीं है,
    यह समंदर से गहरा और आकाश से ऊँचा है |
    शांत नहीं है प्यार झील सा,लहरों का खेल है,
    इसमें जीतने वाला नीचा,हराने वाला ऊँचा है |
    डॉ अ कीर्तिवर्धन

    ReplyDelete
  16. अत्यंत भावुक और दिल को छु जाने वाला लेख. और हमारे समाज के एक बहुत ही शर्मसार कर देने वाले पहलु को दर्शाता हुआ लेख.
    धन्यवाद इस लेख को लिखने के लिए.. एक सफल प्रयास समाज को नींद से जगाने के लिए........

    ReplyDelete
  17. भावना जी आपका लेख मैंने बहुत बार पढ़ा ओर अंत मे एक ही बात सामने आई है की आपने जो भी मुद्दे उठाए है ,वो एक दम सही है आप जब नारी होकर ये मुद्दे उठा सकती हैं तो बाकी क्यूँ नहीं सब सवारथी है ओर सब अपना मतलब निकाल रहे हैं ! आपको सलाम की आपने इतनी गहरी बात को उठाया !काश की सभी बहने ,बेटियाँ आप जैसी सोच रखें तो बहुत कुछ सही हो सकता है !

    ReplyDelete