भगवद्गीता में योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, सन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। परन्तु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। यहाँ उस प्रक्रिया पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है जिसकी रूपरेखा हमको पतंजलि के सूत्रों में मिलती है। थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं।पतंजलि योगदर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है।
Monday, April 26, 2021
विहंगम योग साधना और सेवा
विहंगम योग साधना और सेवा
पद्मासन मुद्रा में यौगिक ध्यानस्थ शिव-मूर्ति
योग एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने का काम होता है। योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घं’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध।
वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है । इस प्रकार योग शब्द का अर्थ योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा। आत्मा और परमात्मा के योग को सही अर्थों में योग कहा गया है।सामान्य भाव में योग का अर्थ है जुड़ना। यानी दो तत्वों का मिलन योग कहलाता है। आत्मा का परमात्मा से जुड़ना।
नित्यकर्म के करने से विशेष फल अथवा अर्थ की सिद्धि नहीं होती, परन्तु न करने से दोष अवश्य लगता
का कौशल कहा गया है। गीता में इसे सन्यास और कर्मयोग कहा है ।
ऋषि-मुनियों ने योग के द्वारा शरीर, मन और प्राण की शुद्धि तथा परमात्मा की प्राप्ति के लिए आठ
प्रकार के साधन बताये हैं, जिसे अष्टांग योग कहते हैं। ये आठ अंग हैं -
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि। धारणा, ध्यान तथा समाधि को
अंतरंग साधन या योग कहा गया है।
'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है।महर्षि पतंजलि के अनुसार योग- ”योगश्चित्त वृत्ति निरोध:” चित्त की वृत्तियों का रोकना ही योग है। मन के भटकाव के नियंत्रण की अवस्था का नाम योग है जैसे तालाब के शांत जल में यदि कंकड़ फेंका जाता है तो उसमें तरंगें
उत्पन्न होने लगती हैं । उसमें छोटी-छोटी और बड़े आकार के वृत्तों वाली कई तरंगें उत्पन्न होने लगती
हैं और उस अशांत जल में मनुष्य का चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता और शांत स्थिर जल में आकृति स्पष्ट
दिखती है । इसी प्रकार हमारे चित्त की वृत्तियां हैं इंद्रियों के विषयों के आघात से उसमें अनेक तरंगें
उत्पन्न हो जाती हैं और उत्पन्न तरंगों के कारण मानव अपने निज स्वरूप को नहीं देख पाता। यदि उसकी
चित्तवृत्तियां समाप्त हों जाएँ तो वह अपने निज आत्मस्वरूप को देखने में सक्षम हो जाता
है।
भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है अनन्याश्चितयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते | तेषां
नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहं ||अर्थात जब पवित्र उद्देश्य से, आत्मसंयम के साथं , संकल्प को बनाये रख कोई भी कार्य कियाजाता है तो यह उत्तरदायित्व स्वयं ‘प्रभु’ अपनी इच्छा से निभाते हैं और तब हम कार्य करने का मात्र‘माध्यम’ होते हैं.
यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? योगस्थः कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।
संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक् रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है।
अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफ़ी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।योग कक्षा में सभी वॉलिंटियर्स बहुत ही अनुशासित और अपने कार्य के प्रति समर्पित रहते। वे योग
का महत्व बहुत अच्छे से समझने लगे थे। योग आध्यात्म से ही संबंधित नहीं है यह एक पूर्ण
विज्ञान हैI
यह शरीर, मन, आत्मा और ब्रह्मांड को एकजुट करती हैI यह हर व्यक्ति को शांति
और आनंद प्रदान करता हैI योग द्वारा वोलेंटियर्स के व्यवहार, विचारों और रवैये में बहुत
महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। जीवन में आने वाले विरोध, स्पर्धा, संघर्ष और दुःख तनाव या चिंता का कारण बनते हैं ।
हम अपने ‘योग’ तथा ‘क्षेम’ की चिंता से ग्रस्त रहा करते हैं | अब, जब हम, उस शाश्वत अनंत से परिचित हो
ही चुके हैं तो “कर्म” में ही हम विश्वास और आस्था रखें फल में नहीं
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणियोगगुरु के रूप में जब मैं इंजीनियरिंग कॉलेज मुंबई के एनएसएस के वोलेंटियर्स को प्रशिक्षण दे रही थी
तब बहुत सी घटनाएं हुई जो मधुर और अविस्मरणीय है। जिन्हें एक बार में लिखना तो बहुत मुश्किल हैधीरे-धीरे टुकड़ों में लिखती रहूंगी।इस दौरान छोटे छोटे गांवों के चहुंमुखी विकास के लिए बहुत सारे कार्यक्रम किए गए ।
मुंबई से थोड़ी दूर पर गुलसुंदे नाम का एक गांव में लगभग आठ सौ साल
से भी ज्यादा पुराना सिद्ध शिव मंदिर है । वही शिव मंदिर के पास पातालगंगा नाम की नदी
बहती रहती है। यह गांव और मंदिर बहुत ही सुंदर और शांत स्थल है। गांव वालों के साथ
मिलकर गांव की प्रगति के लिए कार्य करना शुरू किया। योगाभ्यास से विद्यार्थियों का जीवन
सकारात्मक रूप से को बहुत प्रभावित हुआ है । हमारे वॉलिंटियर्स और स्टाफ मेंबर्स सभी एकजुट
होकर घुल मिलकर इतने अच्छे से कार्यरत थे कि लगता ही नहीं था कि केवल आठ दिन के
लिए यहां पर है। योगगुरु के रूप में, मुझे वॉलिंटियर्स को बुनियादी सूर्य नमस्कार सिखाने के
लिए कहा गया था. प्रतिदिन सुबह सूर्योदय के समय के योग ध्यान भजन के दैनिक अभ्यास से
सभी कार्यकर्ताओं में अंतः-शांति, संवेदनशीलता, अंतर्ज्ञान और जागरूकता और बढ़ती और वे
ज्यादा परफेक्शन से कार्य करते।
एनएसएस या राष्ट्रीय सेवा योजना के तहत राष्ट्र शक्ति का विकास
युवाओं द्वारा किया जाता है।यह युवाओं की पर्सनैलिटी डेवलपमेंट और स्किल डेवलपमेंट में बहुत
सहायक होता है। अधिकांशतः पीड़ा का कारण भावनाओं का अनियंत्रित प्रवाह होता है। चौबीस घंटे एक ही परिसर मेंरहने की वजह से विद्यार्थी बहुत ही ज्यादा तनावग्रस्त होते उनको उनकी समस्या सबसे बड़ी लगती ऐसे में योगाभ्यास उनकी भावनाओं को नियंत्रित और संतुलित करने का कार्य करता ।
अकेलापन उदासभावनाएं मानसिक बीमारी का कारण बनती हैं योगाभ्यास से मन की निर्मलता, तप की वृद्धि, दीनताका क्षय, शारीरिक आरोग्य एवं समाधि में प्रवेश करने की क्षमता प्राप्त होती है .
बौद्धमतावलम्बी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं।यह शब्द - प्रक्रिया और धारणा - हिन्दू धर्म,जैन पन्थ और बौद्ध पन्थ में ध्यान प्रक्रिया से सम्बन्धित है। योग शब्द भारत से बौद्ध पन्थ के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत् में लोग इससे परिचित हैं।
पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों के भी प्रसंग मिलते है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं एक दूसरे से भिन्न हैं । योग आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यक्ता है। यह केवल व्यायाम की प्राचीन पद्धति ही नहीं है बल्कि कई शारीरिक मानसिक बीमारियों का समाधान भी है। योग गुरु के रूप में वोलेंटियर्स से सुबह मात्र कसरत करवाने से वोलेंटियर्स को दिनभर कार्य करने की ऊर्जा मिलती थकान नहीं आती और दिन भर कार्य करने के लिए शरीर का लचीलापन भी बढ़ाता
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