गुरु कृपा ही केवलमगुरु कृपा ही केवलम , गुरु वाक्यं वेद वाक्यम, वासुदेव सुतम देवम कंस चाणूर मर्दनम देवकी परमानंदम, कृष्णं वन्दे जगदगुरुम" मैं वसुदेव पुत्र, देवकी के परमानन्द, कंस और चाणूर जैसे दैत्यों का वध करने वाले, समस्त संसार के गुरू योगीश्वर भगवान कृष्ण की वन्दन करती हूँ। जब परम पूज्य गुरुदेव श्री गंगाधर प्रकाश महाराज के प्रथम दर्शन हुए उस समय कक्षा तीन या चार में रही होऊँगी। गुरुदेव के साथ हमारे माता पिता ध्यान में बैठते थे। पूज्य सदगुरुदेव महाराज नेपूज्य दादी मां को भी कुछ दिन अपने साथ सत चित आनंद में निमज्ज करवाया । हमारी दादी मां श्री रामचरितमानस में अगाध श्रद्धा रखनेवाली विद्वान व्यक्तित्व रही हैं। गुरुदेव भव्य, तेजस्वी , श्वेत वस्त्रधारी, गौर वर्ण के स्वामी, अति शांत मधुर स्वाभाव वाले महात्मा। ऐसे दैदीप्यमान महात्मा हमारे परिवार को मिले और हमारे पूरे परिवार पर अपनीकृपा की। गुरुकृपा ही जीवन को अध्यात्मिक आनंदप्रदान करने वाली होती है. जीवन के दायित्वों को पूराकरने में गुरुकृपा नियोजन, संयोजन और अपनेअपनों के सहयोग को लाती है. गुरुकृपा से हमारी अज्ञान से ढ़की हुई आत्मा आत्मज्ञान के प्रकाश से अनावृत्त होती है और हमारे अंदर पूर्व जन्म से विद्यमान ज्ञान प्रकट हो जाता है। गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकारस्तेज उच्यते।अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते।। गुरु भक्ति को समर्पित पवित्र दिन गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा, भारतीय सनातन संस्कृति , हिन्दू धर्म में दिन होता है। 'गुरु' को सर्वोपरि माना गया है। वास्तव में यह दिन गुरु के रुप में ज्ञान की पूजा का है। 'गुरु" संस्कृत भाषा से लिया गया शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है अंधकार को दूर कर प्रकाश को फ़ैलानेवाला . यदि 'गुरु' शब्द का संधि विग्रह करें तो 'गु' का अर्थ अंधकार और ‘रु’ का अर्थ अंधकार को मिटाने वाला होता है.
गुरु पूर्णिमा और मेरे जन्म दिवस का शुभ संयोग, आज 15 जुलाई 2011, गुरु दर्शन करने की लालसा,गुरु पूजन उत्सव काउत्साह। गुरु दर्शन का लाभ कैसे हो यह उपाय सोच रही हूँ । हमारे परम पूजनीय सद्गुरुदेव श्री गंगाधर प्रकाश महाराजकल्याणपुर में हैं और मै मुंबई से नरसिंहपुर आयी हूँ। मेरा मन कल्याणपुर में ही है वहां सामूहिक गुरु पूर्णिमा काउत्सव हो रहा होगा । गुरुदेव स्थूल भावना नहीं सूक्ष्म भावना का शत शत नमन वंदन स्वीकार करेंगे ऐसा मेरा विश्वास है । मेरी शाश्वत भावना उन तक अवश्य ही पहुँचेगी-
जल में थलमें दूर गगन में , सुख मेंदुःख में,भीड़ सघनमें
हे नाथतुम्हे में भूलूँ ना! दे दो इतना अंतर बल,
हूँ कभीना विचलित भूले से ! तुम हो मुझमे और तुममे में,
जैसेकस्तूरी मृग अंतर में ! जैसे सुगंध पुष्प अंतर में !
'गुरुकृपा' जीवन केप्रतिदिन को दीपावली की तरह जगमग कर देती है. शिष्य के आग्रह पर सद्गुरुदेव कृपा करते है और उसे आवागमन से मुक्तिके उपादान प्रदान करते हैं . बार-बार जन्म लेके संसार में आने की पीड़ा से मुक्तकरने वाले यही सद्गुरु देव भगवान् भवसागर से पार करतेहैं. ऐसे सद्गुरु देव भगवान्की जय हो. यही "गुरुकृपा ही केवलम्" है।माता पिता के बाद गुरू ही है जोहमें बिना किसी भेदभाव और निस्वार्थ भाव से हमारे जीवन को सकारात्मकता की ओर लेजाने में हमारी मदद करते हैं और हमें नकारात्मकता से दूर रखते हैं ऐसे गुरु को हम नमन करते हैं जो हमें सर्वव्यापी परमात्मा से मिलाते आत्म -साक्षात्कार करवाते हैं. अखण्डमण्डलाकारंव्याप्तं येन चराचरम्।तत्पदंदर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।। गुरु , पेड़, सरोवर, मेघ और सज्जन पुरुष परमार्थ के लिए ही पैदा होते है. ब्रह्माण्ड में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी हे जो सोच समझकर विशेषज्ञों के मार्ग निर्देशन में, सद्गुरु की कृपा से अपना लक्ष्य निर्धारित करता है. वह अपने लक्ष्य के गुण दोष, बाधाओ का आंकलन कर इनसे निपटने की रणनीति तैयार कर पूरीनिष्ठा, ईमानदारी और कर्मठता से उस लक्ष्य को प्राप्त करने में अग्रसर रहता है।गुरू ही पारमार्थिक ,सांसारिक और आत्म ज्ञान देते हैं । वस्तुतः , हर सत्कर्म करने वाला अच्छा व्यक्ति जो हमें कुछ अच्छा करने की ओर प्रेरित करता है, हमें प्रोत्साहित करता है अपने ज्ञान और अनुभव के प्रकाश से हमारे अज्ञान को नष्ट करता है प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारा 'गुरु' ही है. मात्र रीति - रिवाज और परम्पराओं में बंध कर ज्ञान प्रदान करने वाला ही गुरु नहीं होता. हर वो व्यक्ति जो हमारे दुविधा के क्षणों में, हमारे दुर्दिनों में, हमारे सामने खड़े होकर हमें मार्गप्रदान करता है हमारा कल्याण करता है हमारे पापों का नाश कर हमें पावन करता है ''पतित पावन' कहलाता है. जो जीवन में नयी सकारात्मक उर्जा भरता है 'गुरु' की पदवी प्राप्त करने योग्य होता है. अतः गुरु को 'ब्रह्मा' , 'विष्णु'और 'महेश' समझ उनका आदर करना और प्रणाम करना मानव धर्म है. गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।गुरुर साक्षात् परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।। गुरु ब्रह्मा हैं, जो सृष्टि के रचियता हैं, गुरु विष्णु हैं अर्थात आयोजक हैं , गुरु महेश्वर अर्थात शिव या संहारक है , गुरु साक्षात 'परब्रह्म' या सर्वशक्तिमान है । हम ऐसे गुरु को नमन करते हैं.गुरु के प्रति विनय भाव रखने का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति है,और विरक्ति का फल मुक्ति है विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतं ज्ञानम्।ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रवनिरोधः।।
मनुष्य का मस्तिष्क उपजाऊ होता है जो दिन भर रात भर सोचता रहता है, ये कर लेता हूँ, वो भी कर लेता हूँ के ताने-बाने बुनता रहता है तथा हर सोच के साथ अर्जुन की तरह उसका मन कभी सकारात्मक तरंग या कभी नकारात्मक तरंगों की ओर झुकता है दुसरे शब्दों में ,सोच बदलना या परिवर्तन होना जीवन के शाश्वत नियम की तरह बन जाता है. अंततः ना ये कर पाता है ना वो कर पाता है. इच्छा शक्ति की कमी या दृढ प्रतिज्ञ होने की कमी उसके मार्ग में विघ्न बन जाती है. मनुष्य में अदम्य क्षमताएं होती हैं उन क्षमताओं का सदुपयोग कैसे और किस दिशा में करना है यह सद्गुरु कृपा से ही निर्धारित होता है. गुरु के सांनिंध्य में सात्विक गुणों का स्वतः उद्भव होने लगता है। मनुष्य का मस्तिष्क विचारों की धरा है इसमें अच्छे और बुरे विचारों के बीज उपजते ही रहते हैं. इस धरा पर तमोगुण रुपी विचार की जो खरपतवार उगती हैं उनको उखाड़ फेंक देना चाहिए और सात्विक विचारों की फसल लहलहाने का सतत प्रयास करते ही रहना ही लक्ष्य होना चाहिए, भजन, संकीर्तन, रामधुन, सत्संग, सेवा, समर्पण, सतत कार्यशीलता और शुद्ध सात्विक आहार से सात्विक प्रवत्ति पायी जा सकती है और तमोगुण रुपी कुसंस्कार का परिमार्जन हो सकता है. विचार तभी दृढ़ होते हैं जब विचारों को गुरुजन द्वारा विशेष दिशा निर्देशन मिलता है. ये विचार दृढ होने पर ही कर्म रूप में परिणित होते हैं. श्रीमदभगवद गीता में श्री कृष्ण भगवन कहते हैं कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन' अर्थात तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू फल की कामना से कर्म मत कर .
मन क्षीण, व्यथित होने पर व्यक्ति अकर्मण्य हो जाता है और सोचता ही रहता है, बाह्य परिस्थितियां अनुकूल होने पर या शारीरिक बल होने पर भी सबल मनो- स्थिति और आत्म-विश्वास के आभाव में व्यक्ति जीवन रुपी रणक्षेत्र में कार्यरत नहीं हो पाता । दुविधा की स्थिति में फिर वही क्रम पुनः शुरू हो जाता है. आत्म विश्वास , वीरता , साहस, प्रोत्साहन, मार्गदर्शन। सहयोग के आभाव में सुबह सोचना , शाम सोचना और यह क्रम चलता ही जाता है. सोच में ही सारा समय निकल जाता है. सोचा हुआ कुछ भी पूर्ण नहीं हो पाता. मन की चंचलता कार्यों में आसक्ति बाधक बनती जाती है. इस विचार में कुछ आशा जनक निष्कर्ष सामने नहीं आता . जब इस सोच को काम में बदलने का संकल्प कठोर मेहनत कर भी पूरा ना हो पाए , तब इस तपस्या में कमी कहाँ है यह मात्र 'गुरु' ही जान सकता है , समझ सकता है और आगे के लिए मार्ग प्रशस्त करने में सहायक सिद्ध होता है. सारथि सद्गुरु केशव ही हम सभी को अर्जुन के माध्यम से गीता का सदुपदेश देते हुए कर्म का सिद्धांत समझते हैं. अकर्मण्य व्यक्तियों को गीता का ज्ञान देकर हमारे जीवन के सारथि बन हमारे जीवन से दुविधा को दूर करते हैं। ऐसे सारथि केशव सद्गुरु को हम सभी नमन करते हैं और जीवन के हर पथ पर हमारे साथ होने की प्रार्थना करते हैं. श्रीमद भगवद गीता के सांख्य योग के तृतीय श्लोक में कहते हैं- हे पृथा-पुत्र! कायरता को मत प्राप्त हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देती है। हे शत्रु-तापन! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर(युद्ध के लिए) खड़े हो जाओ॥
क्लैब्यम् मा स्म गमः पार्थ न एतत् त्वयि उपपद्यते ।क्षुद्रम् हृदय-दौर्बल्यम् त्यक्त्वा उत्तिष्ठ परन्तप ॥
गुरु के साथ छल कपट कर कभी भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता . गुरु की निंदा स्वयं ईश्वर को भी स्वीकार नहीं. ईश्वर रुष्ट हो जाये तो गुरु रक्षा कर सकते हैं परन्तु गुरु के कोप से ईश्वर भी रक्षा नहीं कर पाते. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उत्तर कांड में शिव स्तुति "नमामि शमीशान निर्वाण रूपम" है. गुरु से सीधी ओर सरल बात ही करनी चाहिए. बातों में स्वाद डालने हेतु नमक मिर्ची नहीं लगायी जानी चाहिए. हालाकि , आज के दौर में मसालेदार बातें जल्दी गले उतरती है. सीधी बात को अस्वीकार कर दिया जाता है और शार्ट कट के बजाय चाटुकारों की चिकनी चुपड़ी नमकीन बातो का श्रवन होता है. लोग चटकारे लेकर सुनते है. नमक मिर्ची के रूप मे बुराई ओर निंदा करते है. दूसरों की निंदा कर या हीन करार देकर तात्कालिक रूप से खुद को महान दिखाने की प्रवत्ति से समाज प्रदूषित हो रहा है. ऐसी बातो का अधिक सेवन करने से परिवार के बिगड़ने की सम्भावना बनी रहती है. सोशल मीडिया में परिवार बिखरने और भारतीय संस्कृति के विकृत स्वरुप स्पष्ट दिखाया जा रहा है. लोकप्रिय धारावाहिक ‘सत्यमेव जयते ‘ में ऐसी कई ज्वलंत समस्याओं और उनके समाधान पर समाज के प्रबुद्ध चिकित्सक, मनोवैज्ञानक, धर्मशास्त्री, राजनीतिज्ञ,महिला आयोग , मानवाधिकार आयोग की सक्रियता इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यदि अब भी हम सजग नहीं हुए तो जिंदगी मे पछतावा ही पछतावा निश्चित है.
निश्चित रूप से , परिवार के सभी व्यक्ति उसी प्रकार अलग -अलग स्वभाव के होते है जेसे हमारे हांथो की पांचों उँगलियाँ . इस कारण कभी -कभी एक ही विषय पर सभी सदस्यों की राय अलग-अलग होना स्वाभाविक ही है.परिवार का मुखिया इस पेशोपेश में रहता है कि किस सदस्य की रायको महत्व दे और किस सदस्य की राय को नहीं. सभी सदस्यों की राय की समीक्षा कर जब वह अपना निर्णय देता है. तब अधिकांश सदस्य उसके निर्णय से सहमत नहीं होते.परन्तु ये विचार सामूहिक विरोध का वातावरण बनाते है. कई बार ऐसी स्थिति का सामना करने पर मुखिया भी परिवार की गतिविधियोंमें दखल देना बंद कर देता है.तथा दूसरा अघोषित मुखिया बन जाता है. घोषित मुखिया दरकिनार हो आर्थिक मदद कर पाने लायक ही बचता है. ऐसी स्थिति में मुखिया का स्वाभिमान आहत होता है और वह टूट जाता है परिणामस्वरूप ,परिवार को अपने हाल पर छोड देता है. आज के आधुनिक दौर में, महानगर हो या छोटा शहर पति पत्नी दोनों ही शिक्षित होते हैं और नौकरीपेशा होते हैं । ऐसे में बहुधा देखा गया है की अन्तर्जातीय एवं अंतर्देशीय विवाह का सफल होना संदेहास्पद बन जाता है आपसी समझदारी में कमी, असहयोग , बाह्य व्यक्तियों का आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप, आपस में टकराहट का कारण बनती हैं. कभी कभी एक छोटी सी सामान्य घटना इतना उग्र रूप ले लेती है कि यही उग्र रूप दोनों के सम्बन्ध तक विच्छेद कर देती है.यह स्थिति दोनों के लिए गंभीर होती है .इसके गंभीर परिणामो से बचना कठिन होता है. सामान्य घटना असामान्य न हो पाये तथा घटना लम्बी न खिंचे, पारिवारिक सदस्य किसी भी प्रकार के मानसिक अवसाद से ग्रस्त न हों , परिवार में प्रसन्नता का माहौल बना रहे इस हेतु परिवार में गुरुकृपा ही फलित होती है. जो पति -पत्नी को सतत सावधान करते हुए , ईश्वर प्राप्ति के लक्ष्य का स्मरण करवाते हुए, ध्यान, भजन का आश्रय देतु हुए अपनी कृपा द्वारा सकारात्मक उर्जा से लाबाबोर कर भावनात्मक शांति और संतुष्टि प्रदान करती है. पौराणिक और आधुनिक दोनों ही रूप से ,पति -पत्नी गाड़ी के दो पहिये के समान अटूट बंधन में बंधे हुए एक ही लय में चलते हुए गाड़ी को खींचते हैं एवं इस तीव्रगामी जीवन के हर क्षण का सदु उपयोग कर सभी जिम्मेदारी पूरी करते हुए जीवन के हरक्षण को उत्साह के साथ जी कर अपने दायित्वों को यथा समय पूरा करते है. ऐसी स्थितिमेंगुरुकृपा वैसी ही होतीहैजैसे" मुखियामुखसोचाहिएखान-पानकोएक, पालेपोसेसकलअंगतुलसीसहितविवेक."गुरुपुनःएकपरिवाररुपीविभिन्नउँगलियोंकोएकमुट्ठीबनाकरकरउर्जाऔरशक्तिसेभरदेताहै.औरपरिवारख़ुशीसेझूमकरपूर्णत:गुरुकीशरणहोकर भव बंधन से मुक्ति कारास्ताबनानेजुटजाता है. गुरु का हर पल साथ रहना गुरु है । यह वाक्य सत्य है "गुरु कृपा ही केवलम्" गुरु चरणों में सत् सत् नमन। सद्गुरु श्री कबीर दास जी का यह दोहा इस सन्दर्भ में उपयुक्त है.
"गुरु गोबिन्द दोउ खड़े काके लागू पाय।बलिहारी आपनी गोबिन्द दियो बताय"