Thursday, March 1, 2012

सहज बनो

 सहज बनो

नदी कहे पर्वत से तू क्यों बड़ा बहुत दर्शाता है

छोटा सा ये मानव जूती संग सिर पे चढ़ जाता है

जो झुकना ना जाना अब तक पाया ना सम्मान कभी

झुकने वाले फलित वृक्ष का लेता दिल से नाम सभी

 तू कठोर इतना होकर दुख देता है हर प्राणी को

कंकण बनकर पाँव में चुभता तोड़ के पाता पानी को

राह नहीं देने से तुमको मार के तोड़ा जाता है

नीर की शीतलता से हर प्राणी तन का सुख पाता है

 प्रीति प्यार की भाषा तुमको कभी नहीं आई है

परहित में जीने की सीख कभी किसी से पाई है

सहनशीलता ,प्यार, नम्रता हम नदियों से सीखो तुम

परोपकार के भाव दिलों में खुद भी रखना सीखो तुम

मैं देती हूँ राह सभी को कभी नहीं मैं अड़ती हूँ

बिना वार के काट तुम्हारे जैसों से लड़ती हूँ

प्रस्तरयुत बनकर हे प्राणी जीवन जीना नहीं कभी

सहनशीलता ,प्यार, नम्रता का रखना तुम भाव सभी