Wednesday, July 3, 2013

Realization of Grace of Guru


Money, luxurious houses, expensive cars and wealth are not Guru-Kripa. There are many troubles and calamities in this life which disappear without our knowledge, that is Guru's grace. Sometimes, despite the jostling in a crowded place while travelling, we somehow manage to avoid falling and maintain balance. The balance that saved us from falling is Guru-Kripa.


Whenever it is difficult to get even one meal, we still get enough to eat, that is Guru's grace. When you are burdened with many difficulties, still you feel the strength to face them, that strength is Guru-Kripa. When you are just about to give up and think that now everything is over. 


Then, at that very moment, you start seeing a ray of hope and you get ready to fight again, that hope is Guru-Kripa.When in times of trouble all your relatives leave you alone, a Guru-Bandhu (a friend or a brother or sister who believes in a Guru) comes and says to you - “You go ahead, we are with you.”, *that Guru -The words that give courage from a brother are Guru's grace.

 

Even when you are at the peak of success, full of money and happiness, you feel and humble that is Guru-Kripa.


Just having wealth, opulence and

success is not Guru-Kripa, but when you do not have these things, still you feel happy, satisfied and blessed, *that is Guru-Kripa.

 

 

 

 

 





              

Sunday, April 28, 2013

फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी


फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी



स्वतंत्रता के बाद भारतीय फिल्म श्रंखला में श्री- ४२० (1955) राज कपूर, नादिरा और नर्गिस  द्वारा अभिनीत  फिल्म अपना एक अलग ही विशिष्ट स्थान रखती है.  अपने सम कालीन अभिनेताओं में राज कपूर की फिल्मों का एक अलग ही स्थान रहा है. भारत ही नहीं रूस भी राज कपूर की फिल्मों का अप्रतिम  दीवाना रहा है.  इसका मुख्य कारण राजकपूर का भोलाभालापन ,चार्लीचेपलिन वाला रूप , मुख मुद्रा और सार्थक कथा और संगीत की उपस्थिति है.  "श्री ४२०"  फिल्मजगत में मील का पत्थर साबित हुई है. इसमें   पूर्व-पश्चिम अमीर-गरीब  शिक्षित-अशिक्षित    वर्गों   की वास्तविक वस्तुस्थिति  का  अभूतपूर्व वर्णन किया गया है.

अनाथ,शिक्षित, ईमानदार,भोला राजू मन में कुछ बनने के सपने संजोये हुए इलाहबाद से मुंबई  रवाना  होता है. मुंबई में उसके पास ना रहने के लिए छत है ना खाने के लिए रोटी है. ना ही  उसका कोई अपना है. अपने जापानी जूते, इंग्लिश पेंट, रूसी टोपी को पहिनकर वह रास्ते में पैदल ही चल देता है. है.वह रास्ते का लम्बा सफ़र तय करने के लिए सेठ सोनाचंद से लिफ्ट मांगता है परन्तु सोनाचंद उसे ४२० कहकर कार से उतार देते है.जो मुश्किलों से टकरा कर जीवन के सफ़र में आगे बढ़ता जाता है  ईश्वर भी उसकी मदद करता है. 


मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी गाता हुआ राजू आगे बढ़ता जाता है.उसे सफ़र में कुछ   हाथी सवार, ऊँट सवार मिलते हैं जो उसे लिफ्ट देते है जैसे-तैसे राजू  मुबई पहुँच जाता है. अनजाने अजनबी महानगर में राजू के लिए  रोटी कपडा और मकान की बहुत बड़ी समस्या है परन्तु वह तनिक भी चिन्त्तित नहीं है.घुमते घुमते राजू  गरीबों कि बस्ती में पहुँच जाता है.मुंबई आते ही राजू  फुटपाथ पर सबसे पहले  एक भिखारी से मिलता है जो उसे ईमानदारी और परिश्रम  छोड़ बेइमानी से  धन कमाने की राह पर चलने कि शिक्षा देता है और अपना ईमान बेचने को कहता है.  .

फिर वह गंगामाई नाम की  फल बेचने वाली महिला से मिलता है गंगामाई सहृदय महिला है.बस्ती में रहने  वाले गंगामाई को  माँ समान मानते  हैं  चूँकि राजू के पास पैसे नहीं थे और वह सीधा, सच्चा था इसीलिये गंगामाई  उसे मुफ्त में दो केले दे देती हैं राजू एक केला  भूखे लड़के को दे देता है और दूसरा खुद खा लेता है.गंगा माई की मदद से राजू  को मुंबई में फुटपाथ पर रहने की सुविधा मिल जाती है.बस्ती वालों कि गुजारिश पर राजू दिल का हाल सुने दिलवाला सीधी सी बात ना मिर्च मसाला गाना गाकर सबको अपना बना लेता है. राजू ईमानदारी  की रक्षा के लिए प्राप्त हुआ मेडल गिरवी रख ने जाता है.जहाँ राजू की  मुलाकात गरीब विद्या से होती है, विद्या अपने पिताजी   के साथ मुंबई की एक छोटी सी चाल  में रहती है.विद्या ईमानदार, स्वाभिमानी, परिश्रमी और सुसभ्य, सुंदर शिक्षिका है. एक अच्छा शिक्षक विद्यार्थियों का ही नहीं वरन देश के  भविष्य का भी निर्माता होता है. विद्या पीपल के पेड़ की छाँव में नन्हे मुन्हे धर्मात्माओं का निर्माण करने का स्नेहमयी ममतामयी, प्रयत्न करती है.

यह बस्ती सेठ सोनाचंद की बड़ी हवेली की छाँव तले है. जैसे बड़े पेड़ के नीचे छोटे पौधे नहीं पनप सकते वैसे ही सेठ सोनाचंद गरीबों को और गरीब बनाने के प्रयास में लगे रहते.यद्यपि  उनके भाषण में देशप्रेमी नेता होने की गर्मी है. विद्या को प्रभावित करने के लिए राजू एक लांड्री में काम  करता है. इस लांड्री में अमीरों के कीमती  कपडे धुलने और स्त्री करने के लिए आते है. लांड्री में काम करते हुए राजू की मुलाकात माया से होती है जो राजू की ताश के खेल में हाथ की सफाई से बहुत प्रभावित होती है. और अपने अभिजात्य वर्ग में उसे ताश खेलने हेतु आमंत्रित करती है. माया  राजू का परिचय किसी रियासत के राजकुमार   के रूप में करवाती है। राजू माया के लिए खेलता है और हर बार अपने हाथ की सफाई से बहुत बड़ी धन राशी जीत जाता है. इस  कम्युनिटी   में सेठ सोनाचंद भी शामिल हैं जो की राजू को पहचान लेते है। राजू  अपनी बुद्धि और कार्य कौशल के बलबूते पर   पुनः सेठ सोनाचंद से टकराने की हिम्मत करता है और भीड़ के बहुत बड़े हिस्से को अपने पक्ष में कर लेता है.
  
राजू की प्रतिभा से प्रभावित  होकर  सेठ  सोनाचंद राजू को अपने खास  काम के लिए 'मुख्य' नियुक्त कर देता है. अपने षड़यंत्र में  गरीबों को फंसा कर सेठ सोनाचंद  बहुत ही मामूली कीमत में किश्तों में मकान बनवाने  की घोषणा करता है। वह राजू के माथे सारा दोष  मढ़ कर  खुद विदेश भाग जाना चाहता है  राजू को उसके इरादे की भनक हो जाती है । सेठ सोनाचंद  गरीबों का धन लेकर विदेश जाने के लिए  अपने साथियों से बात करता है और राजू को इस कार्य हेतु विघ्न बनता देख उस पर जान का हमला कर देता है. गंगामाई  राजू को बचाने में अपने प्राणों की आहूति दे देती है राजू  बच जाता है ।  पुलिस  मौके पर पहुँच कर बड़े चोरों  श्री ४२० सम्माननीय सेठ सोनाचंद और उसकी मंडली को गिरिफ़्तार कर लेती है.  राजू को सही राह पर आते देख विद्या राजू को माफ़ कर देती है  अंततः,राजू विद्या  के साथ घर बसाने में सफल हो जाता  है  और अपनी बस्ती के बेघरबार  भाई बहिनों का भी मकान  बनवा देता  हैं .


Saturday, March 9, 2013

अंधियारे मानस मंदिर में प्रभु भक्ति का दीप जला देना


प्रभु भक्ति   









सुबह सुबह धोती कुरता  पहनते हुए वे  राधेश्याम सीताराम धुन सुनते हुए  अपने अपनेघरों से निकलने के लिए तैयार होते हैं। हाथों  में मंजीरा, तुरही और लोकल वाद्य यन्त्र  बजाते हुएअपने अपने घरों से निकल कर वे एक टोली बनाते हुए नरसिंह मंदिर तक पहुँचते हैं प्रातःकाल का शांत वातावरण और चारों तरफ प्राकृतिक  हरियाली,  सूर्योदय की लालिमा, शांतिमय  सुहावना शुद्ध और प्रदूषण रहित वातावरण  और घंटे , मंजीरे , ढोलक के साथ  - "जय जय नरसिंह दया करके मेरी नाव  को पर लगा देना - अंधियारे  मानस मंदिर में प्रभु भक्ति का दीप जला देना" का समवेत स्वर सुनकर मंदिर के आस -पास रहने वाले घरों की गृहिणिया, बुजुर्ग अपने अपने हाथों में अगरबत्ती लेकर मंदिर के समक्ष  टोली  में शामिल हो जाती है और  प्रभातफेरी के सदस्यों के सुर में सुर मिलाने लगती है। नरसिंह भगवान् को धूप दीप नैवेद्य समर्पित कर रामधुन टोली उपस्थित भक्त  जनों को प्रशाद बांटते हुए आगे बढती है. सुबह का प्रशाद  बच्चों  के आकर्षण का मुख्य केंद्र रहता  है।

लोगों का विश्वास है कि  सुबह सुबह नरसिंहपुर के अधिपति  विष्णु अवतार श्री -लक्ष्मीनरसिंह भगवान् का स्मरण करने  से  उनके जीवन का दुःख दारिद्रय  दूर हो  जायेगा। दूसरा भजन गाते हुए-"सीता राम सीता सीता राम कहिये , जाही बिधि राखे राम ताहि बिधि रहिये", अपने तन- मन से प्रभु का  नाम लेते हुए  वे राधा वल्लभ मंदिर के सामने पहुँचते हैं और पुनः समवेत स्वर में घंटे शंख की ध्वनि और आरती द्वारा  आस पास के लोगों को जागते हुए  प्रसन्नता से बिना किसी लाज के नाचते गाते हुए आगे बढे जा रहे हैं।   मंदिर की देहरी पर धुप दीप पूजन कर और दीपक  जला कर वे  मुरलीधर मंदिर पहुंचे .इस तरह वे चलते जाते हैं। दशकों से इस प्राचीन परम्परा का निर्वाह करते हुए  पूजन कर  प्रशाद बाँटते हुए  वे आगे की मंदिरों की और उसी उत्साह से बढ़ रहे हैं जिस उत्साह से उनके पूर्वज नियमित परंपरा का निर्वाह करते थे ।

शहर में रहने वाले  शर्मा जी प्रातः काल की ऐसी मनोरम छटा का पूरा आनंद ले रहे थे  उन्हें धन से ज्यादा तन और मन की शक्ति जगाने वाला प्रभात भ्रमण आनंददायी प्रतीत हो रहा था.उनके लिए यह एक आश्चर्य का विषय था कि भारी बरसात हो या कड़ाके की सर्दी  कम से कम पचास से सत्तर  स्त्री- पुरुष की टोली  मंदिरों के सामने अवश्य ही अपस्थित रहती है प्रातःकाल  कीर्तन भजन यह हम भारतियों की परंपरा रही है जो की शहरीकरण में विलीन होती  जा रही है.ऋषियों ने इस परंपरा को धर्म से जोड़ कर प्रस्तुत किया था जिसे आज के मॉडर्न युग में मोर्निंग वाक का नाम दिया गया है.  

शर्मा जी प्रातः दस बजे से पहले कभी सोकर नहीं उठते थे अब सेवा निवृत होकर  भी सुबह पांच बजे उठ जाते हैं यह उनकी पत्नी और परिवार के लिए आश्चर्य जनक प्रसन्नता का विषय था। नरसिंहपुर में इस तरह की प्रभात फेरी  महानगर से आने वालों के लिए कोतुहल का विषय थी। जब शर्माजी  महानगर में रहते थे तब उनकी सुबह उनके बच्चों  के पॉप म्यूजिक शुरू होती थी.भागम भाग की जिंदगी - तैयार हुए टाई  कोट पहना और कार निकाल कर जो रवाना हुए तो फिर तो रात में थक हर कर सीधे घर आकर बिस्तर पे पड़ जाते। उनके बच्चे भी लेट नाईट टीवी सभ्यता का अनुसरण करते हुएजल्दी नहीं सोते और न ही जल्दी उठते.

 विभिन्न स्थानों से आये साधू संतों ने नरसिंहपुर को एक तीर्थस्थल की गरिमा से भी सुशोभित किया गया है .उन्होंने इस शहर के लोगों की मनोशुद्धि के लिए हरसंभव प्रयास किये है जिनमे से एक अद्वितीय प्रयास रोज सबेरे रामधुन गाते हुए प्रभात फेरी निकलाने की परंपरा बनाना है।सबेरे-सबेरे रामधुन की अलख से वातावरण सात्विक हो जाता है। यह क्रम जन मानस की मनोवृत्ति को भक्ति भाव के प्रवाह में बहाने में सहायक  है।नरसिंहपुर शहर में लगभग हर चौराहे पर एक मंदिर स्थापित है। भगवन नरसिंह का विशाल मंदिर और माँ नर्मदा और विलक्षण साधू संतों का इस शहर को दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हैं।

प्रभात फेरी में सुबह की सैर करने वालो की दिन पर दिन वृद्धि ही हो रही है दशकों से निकल रही प्रभातफेरी की परंपरा का पालन करने वाला नरसिंहपुर शहर भक्ति भावना शांति और सद्भाव का सन्देश है। नरसिंहपुर नगर  की हर सुबह बड़े धूमधाम से रामधुन के साथ प्रभात फेरी से शुरू होती है। प्रातःकाल की खुली स्वच्छ वायु फेफड़ों में रक्त शुद्ध करने की क्रिया को प्रभावशाली बनाती है। इससे शरीर में ऑक्सीहीमोग्लोबीन बनता है, जो कोशिकाओं को शुद्ध ऑक्सीजन पहुँचाता है  अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ  मिनट निकाल हम सभी को अपने तन और मन को स्वस्थ रखने हेतु संकल्प ले कर  थोड़ा-सा समय प्रदूषण मुक्त सुबह की ठंडी सुहावनी हवा में, जो प्रकृति ने हमें उपहारस्वरूप दी है का लाभ उठा  कर जीवन में संजीविनी शक्ति सा संचार करना चाहिए । मन में शुद्ध विचार तभी आते है जब शुद्ध वातावरण शुद्ध आबोहवा हो. शोध के अनुसार प्रातः भ्रमण अवसाद से मुक्ति दिलाने का भी एक सफल उपाय बताया गया है।





तमसो मा ज्योतिर्गमय






'परिधि' या'पिंजरा' वह होता है जिसमे पालतू पशु- पक्षियों को बंद किया जाता है .'अध्यात्मिक' अर्थ में पिंजरा 'शरीर' को भी कहा जाता है जिसमे 'आत्मा' कैद होती है पिजरे में  बंद सभी जीव जंतुओं को 'मुक्ति की आकांक्षाहोती हैकुसंगति हमेशा कुसंस्कार- हिंसा, नशा,स्वार्थ,रुढ़िवादी विचार को जन्म देती है संस्कार पीढ़ीयों से हस्तांतरित होते हैं. कुसंगति ही सभी दुर्गुणों की जड़ होती है.कुसंस्कारों का परिमार्जन प्रायश्चित्त और पश्चाताप से भी संभव नहीं. कुसंगति के सामान नरक नहीं
आधुनिक जीवन शैली को जीता हुआ मानव  कर्ज,  कुरीतियाँ, कुसंस्कार , झूठ , छल कपट आदि कई बंधनों में बंधा होता जिससे  मुक्त होने  की आकांक्षा तो वह रखता है परन्तु भरसक प्रयत्नों के बाद भी मुक्त नहीं हो पातासर्वेश्वरदयाल सक्सेना की  कविता इस सन्दर्भ में - 


            
चिडि़या को लाख समझाओ,
कि पिंजड़े के बाहर
धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है,
वहॉं हवा में उन्हें
अपने जिस् की गंध तक नहीं मिलेगी।
यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,
पर पानी के लिए भटकना है,
यहॉं कटोरी में भरा जल गटकना है।
बाहर दाने का टोटा है,
यहॉं चुग्गा मोटा है।
बाहर बहेलिए का डर है,
यहॉं निर्द्वंद्व कंठ-स्वर है।
फिर भी चिडि़या
मुक्ति का गाना गाएगी,
मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी,
पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी,
हरसूँ ज़ोर लगाएगी
और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।


भौतिकवाद या ९९ के फेरे ने (पैसे कमाने की प्रतियोगिता ने ) आध्यात्मवाद के अस्तित्व को मिटा दिया है.  दैवीय चेतना , संवेदना कितनी ही बार अंदर की आध्यात्मवाद के मजबूत घेरे से बाहर नहीं जाने हेतु हमें मार्ग दिखाती है . आध्यात्म रुपी इस लक्ष्मण रेखा को पार न करने के संकेत देती है.हर  बार यह अनुभूति कराती है कि  -- "इस घेरे के बाहर दुनिया कठोर है.निष्ठुर है.ईश विनय की परिधि में ही रहो
यहां ईश्वर रखवाला है. निस्वार्थ प्रेम करने वाला है.सत् -चितआनंद प्रदान करने वाला है.इस परिधि केबाहर रोजी रोटी के लिए संघर्ष है.अपना जीवन बचने,अस्तित्व बनाने के लिए कठोर संघर्ष है. कदमकदम पर नकाब पहने हुए चेहरे ,जो लुटेरे हैं ,शिकारियों का भय है.ऐसे बहुरूपियों की हाथों की कठपुतली मत बनो. मृग तृष्णा में मत राह भूलो.ईश राह में स्वतंत्रता है,शांति, प्रेम आनंद है. भौतिकवाद रुपी सोने के पिंजड़े में कैद मत हो.भौतिकता की प्रतियोगिता में मानव मूल्यों की अवहेलना करनी पड़ती है." परन्तु  जीवन -मृत्यु ( आध्यात्म और भौतिकवाद) के प्रश्न पर भी मनुष्य परमात्मा के निस्वार्थ प्रेम आनंद और आध्यात्मवाद की परिधि से निकल जाता है और भौतिकवाद के पाश में जकड जाता है.

यह  सत्य है कि मनुष्य  सामाजिक प्राणी है.परन्तु यह  भी असत्य नहीं है कि वर्तमान परिद्रश्य में  'सभ्य'  उसे ही कहा जाता है जो सामान्य व्यवहारिक बुद्धि का सदुपयोग नहीं करते हुए नित नवीन चतुर प्रयोगों को छल - कपट के साथ अपनी स्वार्थ -साधना  करता  है.जो भौतिकवाद समाज में सफल है.

जीवन की दौड़ में सही को सही और गलत को गलत कहने वालाव्यक्ति  'कूटनीति' और 'राजनीति' जानने वाले व्यक्ति की तुलना में कहीं दूर रह जाता है.मानव की  स्वार्थवादिता ने  मानवीय भावनाओं और संवेदनाओं को निर्बल करने की चेष्टा की है वहीं मानवीय रिश्तों के रूप को भी परिवर्तित किया है.सभी सुखी, निरोगी रहे ,विश्व का कल्याण हो प्राणीयों में सद्भावना हो" इस प्रकार के उच्च विचार रखने वाले अपने हितों की तिलांजलि देने वाले मानव के मूल स्वाभाव " परमार्थ " की रक्षा करने हमारे भारत के ही संत है .

भारत की इसी महान संस्कृति के कारण भारत को 'जगदगुरु' कहा  गया है. "तुलसीदासजी, मीराबाई, कबीरदासजी ,रहीम" आदि ने  सदप्रवत्ति- संवर्धन हेतु काव्य प्रतिभा  स्वर-साधना का उपयोग किया था.परन्तु हम आज यही मार्गदर्शन या जीवन अनुभव-सार अनदेखा कर चुके हैं.        

 "परहित सरिस धर्म नहीं भाई,परपीड़ा सम नहीं अधमाई" -जैसे सुविचार और सुसंस्कार रखते हुए भी कलयुग के प्रभाव में आता  है और अपने अमूल्य मानव जीवन को भौतिकता की अंधी दौड़ में बिता कर नष्ट क़र देता है .मेरी ईश विनय यही है कि विश्व को शांति का मार्ग दिखने वाला  'भारत 'पुनः " असतो मा सद्गमयतमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्युर्मा अमृतं गमय " के पथ पर अग्रसर होवे तथा हमारे देश में पुनः  सुसंस्कार और सुज्ञान का प्रकाश फैला दे.


Thursday, February 7, 2013

अमर बलिदान


भारत  के  सपूत , अमर शहीद-  श्री  बृजलाल श्रीवास्तव




     द्वितीय विश्व युद्ध के समय चीन , जापान , रंगून , बर्मा सभी भारत का ही अंश थे सुभाष चन्द्र बोस ने "तुम मुझे खून दो ,मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा'' का नारा दिया। उस समय अपने परिवार का पालन पोषण करने हेतु भारतीय जनता ब्रिटिश फ़ौज में शामिल हुयी थी 'नेताजी' सुभाष चन्द्र बोस के आवाहन पर वही भारतीय जनता ब्रिटिश फ़ौज छोड़ कर उनके साथ हो गयी . सुभाष चन्द्र बोस के साथ हमारे दादाजी श्री राम लाल श्रीवास्तव उनके अनुज सहोदर भाई श्री ब्रज लाल श्रीवास्तव ने स्वत्नत्रता संग्राम में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया हमारे छोटे दादाजी अमर शहीद श्री ब्रज लाल श्रीवास्तव ने पूरे कौशल से 'आजाद हिन्द फ़ौज' अख़बार की व्यवस्था चीफ एडीटर के रूप में सम्हाली।

छोटे दादाजी श्री ब्रज लाल श्रीवास्तव १४ भाषाओँ के ज्ञाता थे. तथा भारत (दिल्ली ) वायरलेस द्वारा युद्द क्रांति का सन्देश भेज कर और अपनी लेखनी द्वारा जन -जन में आजादी के प्रति नया उत्साह भरने का अप्रतिम प्रयास करते रहे. अपने देशवासियों तक युद्ध विवरण का सन्देश भेजते समय किसी जापानी द्वारा पीछे से गोली मार देने की वजह से मात्र २५ वर्ष की आयु में प्राणोत्सर्ग करने वाले प्रखर व्यक्तित्व का वर्णन हमारे दादाजी श्री राम लाल श्रीवास्तव की डायरी जो की मुझे अभी कुछ समय पहले ही प्राप्त हुई है में इस तरह व्यक्त है जैसे युद्ध का सचित्र वर्णन आँखों के सामने ही चल रहा हो. स्वतंत्रता प्राप्ति की पहली किरण और उसका अहसास क्या होता है यह भी मेरे दादाजी की डायरी में पढ़कर रोम -रोम पुलकित और हर्षित हो जाता है. हमारे दादाजी ने अपने अनुज सहोदर भाई की बलिदानी की गाथा अंग्रेजी भाषा में अपनी डायरी में लिखी है .अपनी छोटी सी बुद्धि से उस शाश्वत देश प्रेम को जिसके बीजांकुर हमारे दादाजी हमारे अंदर प्रस्फुटित कर गए हैं ,अभिव्यक्त करना पार्थिव शब्दों के माध्यम से परे है. 'नेताजी' सुभाष चन्द्र बोस ने जो क्रांति का बीज बोया वो वटवृक्ष में निर्मित हुआ और उस वटवृक्ष से पुनः कई बीज उत्पन्न हुए और देश की रक्षा के लिए शहीद हुए . इन शहीदों की नश्वर देह भले ही हमारे बीच नहीं हो परन्तु ये अपना नाम अमर कर गए।

छोटे दादाजी के आखिरी शब्द थे -" मै पुनः जन्म लेकर अपनी भारत माता की की सेवा के लिए जल्द ही आऊंगा" . प्राणों के सामान प्रिय अनुज भाई को अपनी आँखों के सामने स्वतंत्रता के लिए बलिदान होते देख हमारे दादाजी अपनी माँ जी अपनी पत्नी यानि मेरी दादी मायादेवी श्रीवास्तव और मेरी बड़ी बुआ के जीवन की रक्षा हेतु वापस भारत जाने की सोची , उस समय मेरे पिताजी गर्भ में थे और हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराए जा रहे थे मेरी दादी की जीवन रक्षा बहुत आवश्यक थी रंगून से भारत समुद्र के रस्ते होकर ही जाया जा सकता था जहाज पर भी मेरी दादी ने आजाद हिन्द फ़ौज के फौजियों के लिए उनकी ड्रेस सिल कर अपना योगदान दिया लगभग माह समुद्री यात्रा कर दादाजी, उनकी मांजी और मेरी दादी बड़ी बुआ और गर्भस्थ पिताजी कलकत्ता के राजमहल पहुंचे. १९ १ १  तक कलकत्ता भारत की राजधानी के नाम से जाना जाता था.  

द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) का आवाहन तब हुआ जब प्रथम विश्व युद्ध (1914-1917)के बाद भी पूर्णतः शांति नहीं पाई . यह युद्ध का आवाहन लगभग 20 वर्षों तक लगातार अपना असर दिखाता रहा। इटली और जर्मनी के मध्य हुआ यह द्वितीय विश्व युद्ध विश्व के विनाश की ध्वजा फहराने को तत्पर था क्योंकि इटली के तानाशाह मुसोलिनी और जर्मनी के तानाशाह हिटलर दोनों का अहंकार उतना ही बढ़ा- चढ़ा था जितना महाभारत के युद्ध में कौरवों का दंभ। द्वितीय विश्व युद्ध में अनगिनत निर्दोष लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। मुसोलिनी ने विश्व पर राज्य करे के लिए जर्मनी के नायक हिटलर से उसकी सभी सेन्य तथा आर्थिक शक्तियां छीन ली तथा जर्मनी में अपना साम्रज्य स्थापित कर लिया। जर्मनी को अपना गुलाम बना लिया .अपमान, गरीबी, भूख और शोषण से ग्रस्त जर्मनी ने इस परिस्थिति का विद्रोह करने करने हेतु या तो सम्मान या मौत की नीति अपनाई और नए जोश और नए रंग से जंग छेड़ दी। इटली में भी आर्थिक तंगी भूख से पागल लोग मुसोलिनी के नेतृत्व में एक ही झंडे के नीचे आकार ताकत अजमाइश कर अपना अधिकार पाने का गान गाने लगे। इस तरह दोनों देशों ने युद्ध द्वारा देश जितने की नीति अपनाई और फिर द्वितीय विश्व यूद्ध छिड़ा। जिसका फायदा अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराकर उठाया। जिससे भयावह नर संहार हुआ लाखों लोग बेघरबार हुए।

उस समय भारत भी अंग्रेजों की गुलामी से त्रस्त इसी तरह की मानसिक, आर्थिक , सामाजिक, राजनितिक परिस्थितियों से जूझ रहा था। परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ी भारत माता को स्वतंत्रता दिलाने उसके सच्चे वीर सपूतों ने अपना सर कलम करवाने का संकल्प लिया और भारत के लिए अमर हुए शहीद हुए .आज जिस आजाद भारत में हम सांस ले रहे हैं वह आजादी हमें आसानी से नहीं मिली है। देश के हजारों बलिदानियों को भारत माता को अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए अपनी जान की क़ुरबानी देनी पड़ी है। अंग्रेजों के भयावह अत्याचार को सहने वाले ऐसे कई शहीद है जिनके अमर बलिदान से हमारा भारत जन मानस अभी तक परिचित ही नहीं हुआ है।