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Friday, January 28, 2022

महायोग विज्ञान

ॐ  महायोग विज्ञान --:लेखक :-- योगानन्द ब्रह्मचारी  (वर्तमान नाम  योगेंद्र विज्ञानी ) प्रकाशक एवं पुस्तक प्राप्ति स्थान :-- अध्यक्षा  आशियाना,८४ -गंगानगर ऋषिकेश (देहरादून) --------------------------------------------------------- सर्वाधिकार प्रकाशिका के अधीन सुरक्षित हैं.  डाक व्यय                                                              मूल्य पृथक  

Mahayog Vigyan --- Author :- Yoganand Brahmachari (Present Name Yogendra Vigyan) Publisher and place of receipt of book :- President Ashiyana, 84 - Ganganagar Rishikesh (Dehradun) -------------- ------------------------------------------- All Rights reserved under thePublisher. Postage                           
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Wednesday, April 7, 2021

योग और सेवा :अप्प दीपो भव




योगगुरु के रूप में जब मैं इंजीनियरिंग कॉलेज मुंबई के एनएसएस के वोलेंटियर्स को प्रशिक्षण दे रही थी तब बहुत सी  घटनाएं  हुई  जो बहुत ही मधुर और अविस्मरणीय है। जिन्हें एक बार में लिखना तो बहुत मुश्किल है धीरे-धीरे टुकड़ों में लिखती रहूंगी। इस दौरान हमने छोटे छोटे गांवों के चहुंमुखी विकास के लिए बहुत सारे कार्यक्रम किए। 

एक सीनियर अनुभवी प्रोफेसर और मेडिकल इंजीनियरिंग डेंटल छात्र-छात्राओं की रेक्टर होने के बावजूद भी मैंने कुछ इंटरेस्टेड टीचिंग स्टाफ और नॉन टीचिंग स्टाफ और स्टूडेंट्स को योग हेतु प्रोत्साहित किया और सर्वांगासन हलासन भुजंगासन गरुणासन पद्मासन प्राणायाम सिखाया।हॉस्टल की छात्राएं भी जब बहुत ही ज्यादा तनावग्रस्त होतीं तो मैं उन्हें योग और ध्यान करने की शिक्षा देती। चौबीस घंटे एक ही परिसर में रहने की वजह से छात्राओं को योग सिखाना प्रबंधन की नजर में ब्राउनी पॉइंट स्कोर करने जैसा था परंतु योग कक्षा कंडक्ट करने के लिए मुझे उचित स्थान नहीं मिल रहा था। कभी कॉन्फ्रेंस रूम, कभी लॉबी, कभी गार्डन में लंचटाइम में या उसके बाद मैंने कुछ मेडिकल छात्राओं की सप्ताह में एक बार योग कक्षा  कंडक्ट की और योग कक्षा की स्थापना के बारे में प्रबंधन से बात की।

एनएसएस या राष्ट्रीय सेवा योजना के तहत राष्ट्र शक्ति का विकास युवाओं द्वारा किया जाता है।यह युवाओं की पर्सनैलिटी डेवलपमेंट  और स्किल डेवलपमेंट में बहुत सहायक होता है। बेज  में कोणार्क व्हील में आठ बार हैं जो दिन के 24 घंटे का प्रतिनिधित्व करते हैं  यानी 24 घंटों की अनवरत सेवा। बैज में लाल रंग इस बात को प्रतीक है  कि एनएसएस स्वयंसेवक रक्त से भरे हैं वे जीवंत, सक्रिय, ऊर्जावान और उच्च भावना वाले है। नौसेना का नीला रंग ब्रह्मांड का प्रतीक  है जिसमें एनएसएस एक छोटा सा हिस्सा है, जो मानव जाति के कल्याण के लिए अपने हिस्से का योगदान करने के लिए तैयार है।
योग और ध्यान के अलावा हमने (मुंबई यूनिवर्सिटी) स्वच्छता अभियान रेली निकलवाना,  गांवों के चौराहे पर स्वच्छता जागरूकता फैलाने हेतु वॉलिंटियर्स द्वारा नुक्कड़ नाटक करवा कर ग्राम वासियों को कचरा एक जगह इकट्ठा कर के डब्बे में डालने हेतु प्रोत्साहित करना।इस बात के लिए जागरूक करना कि कचरा या गंदगी में रहने से ही बहुत सारे रोग और बीमारियां फैलती हैं। शौचालय बनवाना, खानपान से संबंधित जागरूकता फैलाना, ब्लड डोनेशन, गांधी जयंती स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्रता दिवस पर गेटवे ऑफ इंडिया में भजन संध्या का कार्यक्रम करवाना, महाराष्ट्र गवर्मेंट की और से ट्री प्लांटेशन करवाना , आदि प्रमुख थे।

नुक्कड़  एक  नाट्य विधा है, जो  रंगमंच   से भिन्‍न है । इसके लिए मंच की आवश्यकता नहीं होती। इसमेंंंं कलाकार नाच गाकर , अभिनय करके किसी सड़क, गली, चौराहे या किसी संस्‍थान के गेट अथवा किसी भी सार्वजनिक स्‍थल पर भीड़ एकत्रित करके किसी समसामयिक समस्या को रखतेे हैं। हमारे प्रिय और मेधावी सक्रिय कार्यकर्ता प्रियंका वाटकर के नेतृत्व में  नुक्कड़ द्वारा गांव की समस्या और उसके समाधान को रखने में सफल रहे उन्होंने परिस्थितियों और समस्याओं को नुक्कड़ द्वारा अभिव्यक्त किया । 
प्रभारी अधिकारी के रूप में एनएसएस में कार्य कर मुझे जो अनुभव हुआ वह इन पंक्तियों को साकार करता है।
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार... 
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार....
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार...
जीना इसी का नाम है.... 

मुंबई से थोड़ी दूर पर गुलसुंदे  नामका एक गांव है जहां पर बहुत पुराना लगभग 800 साल से भी ज्यादा पुराना शिव मंदिर है 

जो कि सिद्ध मंदिर के रूप में जाना जाता है और वही शिव मंदिर के पास पातालगंगा नाम की नदी बहती रहती है। यह गांव और मंदिर बहुत ही सुंदर और शांत स्थल है।  गांव वालों के साथ मिलकर गांव की प्रगति के लिए कार्य करना शुरू किया। 


हमारे वॉलिंटियर्स और स्टाफ मेंबर्स सभी एकजुट होकर घुल मिलकर इतने अच्छे से कार्यरत थे कि लगता ही नहीं था कि केवल आठ दिन के लिए यहां पर है।



यह युवाओं की पर्सनैलिटी डेवलपमेंट  और स्किल डेवलपमेंट में बहुत सहायक होता है।
सात दिनों तक शिविर में स्टूडेंट्स ने सेवा कार्य करते हुए लोगों को श्रमदान के लिए जागरूक किया।
 ग्राम वासियों को शिक्षा व स्वच्छता के प्रति जागरूक रहने की प्रेरणा दी। 

मेरे  योग प्रशिक्षण में, मुझे वॉलिंटियर्स  को बुनियादी सूर्य नमस्कार सिखाने के लिए कहा गया था, योग करवाने के लिए पूरी तरह से निर्देश की स्पष्टता, कक्षा के साथ संबंध बनाने की  क्षमता और वोलेंटियर्स के दिल से बोलने की हिम्मत देने की प्रेरणा एक अच्छे प्रशिक्षक का कर्तव्य था। 
प्रतिदिन सुबह सूर्योदय के समय के योग ध्यान भजन के दैनिक अभ्यास से सभी कार्यकर्ताओं में अंतः-शांति, संवेदनशीलता, अंतर्ज्ञान और जागरूकता और बढ़ती और वे ज्यादा परफेक्शन से कार्य करते। 
कई वोलेंटियर्स  का काम में मन नहीं लगता नई उम्र के  वोलेंटियर्स थे , उन सभी का मन पेंडुलम की तरह डोलता कि इस कार्य को करने में मुझे लाभ है कि नहीं । स्वाभाविक रुप से -  भूत से भविष्य, अफसोस और गुस्से से चिंता, एवम भय और ख़ुशी से दुख के बीच में झूलते रहता I योग आसन  और  सुखद वातावरण उन्हें जीवन में सामंजस्य समता बनाए रखने में सक्षम बनाता। 

योग आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यक्ता है। यह केवल व्यायाम की प्राचीन पद्धति ही नहीं है बल्कि  कई शारीरिक मानसिक बीमारियों का समाधान भी है। योग गुरु के रूप में  वोलेंटियर्स से  सुबह मात्र कसरत करवाने से वोलेंटियर्स को दिनभर कार्य करने की ऊर्जा मिलती  थकान नहीं आती और  दिन भर कार्य करने के लिए शरीर का लचीलापन भी  बढ़ाता।
मेरी सुबह 5:00 बजे की योग कक्षा में सभी वॉलिंटियर्स बहुत ही अनुशासित और अपने कार्य के प्रति समर्पित रहते। 

वे योग का महत्व बहुत अच्छे से समझने लगे थे। योग आध्यात्म से ही संबंधित नहीं है यह एक पूर्ण विज्ञान हैI यह शरीर, मन, आत्मा और ब्रह्मांड को एकजुट करती हैI यह हर व्यक्ति को शांति और आनंद प्रदान करता हैI योग द्वारा वोलेंटियर्स  के व्यवहार, विचारों और रवैये में बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन आया।

एनएसएस गतिविधियों को विशेष रूप से खेल और युवा मामलों के मंत्रालय, सरकार द्वारा वित्त प्रदान किया जाता है।  सदस्यों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता है। इस योजना को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में विश्वविद्यालय से विभिन्न छात्रों को शामिल किया जाता है और उन्हें देश के आदर्श नागरिक बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।  एनएसएस स्वयंसेवकों को वर्दी और बैज पहनना अनिवार्य है। प्रकोष्ठभाग लेने वाले स्वयंसेवकों को कम से कम 240 घंटे नियमित गतिविधियों और दो साल की अवधि में एक विशेष शिविर पूरा करने पर प्रमाण पत्र प्रदान किया जाता है। छात्रों के अकादमिक कैरियर में सह-पाठ्यचर्या गतिविधियों में प्रमाणपत्र का महत्वपूर्ण मूल्य है।

राष्ट्रीय सेवा योजना का आदर्श वाक्य या दृष्टिकोण यह है: 'मुझे नहीं बल्कि आप'। यह लोकतांत्रिक जीवन के सार को दर्शाता है और निःस्वार्थ सेवा की आवश्यकता को बनाए रखता है और दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण की सराहना करता है । यह स्पष्ट करता है कि एक व्यक्ति का कल्याण अंततः समाज के कल्याण पर निर्भर है। इसलिए,  एनएसएस के अपने दिन-प्रति-दिन कार्यक्रम में इस आदर्श वाक्य का प्रदर्शन  किया जाता है। 

एन एस एस प्रकोष्ठ  विभिन्न कार्यक्रम जैसे रोजगारोन्मुखी कार्यक्रम, स्वच्छ भारत अभियान (सफाई अभियान और क्षेत्र दौरान), ग्रीन वाक, रक्तदान शिविर, "राष्ट्रीय युवा उत्सव, स्वच्छता जागरूकता निर्माण  पर विशेष शिविर, टीसीएस रोजगार प्रशिक्षण कार्यक्रम, "छात्रों के समग्र व्यक्तित्व विकास" पर योग ध्यान कार्यशाला, विभिन्न भाषण, वाद- विवाद, निबंध प्रतियोगिताओं आदि पर कार्यशाला  आयोजित करता है।

योग मोटापा कम करने  में भी सहायक है ।  मोटापा कम करने  के नाम  पे कई जिमखाना और ट्रेनर  वर्कआउट के नाम पे शारीरिक अत्याचार करवाते है जिससे लाभ कि जगह हानि होती है। ट्रेनर कभी -कभी  ऐसे व्यायाम करवा देते हैं जो  शरीर के लिए हानिकारक सिद्ध होते है । शरीर को छरहरा रखना तभी संभव है जब हम कुछ जरुरी सावधानियां रखते हैं तब ही स्वास्थ्य एवं अन्य सुख प्राप्त कर पाते हैं।  

आजकल योग प्रशिक्षण कई संस्थाओं द्वारा किए जा रहे हैं। मुझे एक योग प्रशिक्षण शिविर याद है जो 2009, जनवरी जोगेश्वरी मुम्बई  में आर्ट ऑफ लिविंग  द्वारा योग गुरु श्री श्री रविशंकर जी के निर्देशन में करवाया गया।

आर्ट ऑफ लिविंग के बेसिक कोर्स को अब हैपीनेस प्रोग्राम कहा जाता है   जिसमेंं सुदर्शन क्रिया पर मुख्य ध्यान दिया गया।  मैंने यह अनुभव किया कि इस कोर्स में शारीरिक व्यायाम और ध्यान का पशिक्षण दिया जा रहा है। प्रशिक्षिका प्रमिला दीदी थीं। मैं इस विषय की पहले से ही जानकर रही हूं।
 इस  कोर्स से मेरी उम्मीदें पूरी नहीं हो पाई। मुझे ज्यादा की भूख थी परंतु बहुत कम मिला।


मै  योग ध्यान वाले फैमिली  कलचर से हूं। हमारे छोटे फूफाजी  विगत 50-60 वर्षों से बिलासपुर के जाने माने योगाचार्य के रूप में प्रसिद्ध हैं।बचपन से ही सूर्य नमस्कार ,प्राणायाम , कपालभाति करते आ रही हूं और हमारा परिवार शक्तिपात दीक्षा प्राप्त है सहज समाधि क्या होती है इसका ही अभ्यास या साधना हम ध्यान में करते आए हैं। जब भी बुआजी फूफाजी नरसिंहपुर आते हम फूफाजी को सुबह चार बजे से आसन योग ध्यान करते हुए पाते। उनका यह शेड्यूल आज भी कायम है इसलिए वे बहुत तेजस्वी हैं और शारीरिक रूप से पूर्ण स्वस्थ्य हैं। शांत स्वच्छ स्थल पर हम उन्हें आसन करते हुए देखते । वे आसन के लिए   स्वच्छ और साफ हवादार जगह का चयन कर आसन (चटाई) बिछा कर पद्मासन यानी पाल्थी मार कर बैठ जाते और फिर गहरी सांस लेते हुए आसन करना शुरू करते। 


Friday, April 2, 2021

सूर्योपासना

सूर्योदय और विष्णु अवतार श्री नरसिंह मंदिर दर्शन हमारे घर के कॉरिडोर से 
जय गुरुदेव🙏🏻🙏🏻

प्राकृतिक सौंदर्य धार्मिक आध्यात्मिक संपदा से भरपूर नरसिंहपुर उत्तर में विन्ध्याचल और दक्षिण में सतपुड़ा की पहाड़ियों से घिरा हुआ है । इसके चारों तरफ पवित्र नर्मदा नदी जिले की खूबसूरती में वृद्धि करती है। महान वीरांगना रानी दुर्गावती के काल में यह स्‍थान काफी चर्चित रहा था। यहां अनेक ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल हैं। मृगन्नाथ धाम राजमार्ग ,नरसिंह मंदिर, ब्राह्मण घाट, झौतेश्वर आश्रम, श्रीनगर का जगन्नाथ मंदिर और डमरू घाटी यहां के लोकप्रिय पर्यटन स्थल हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है नर्मदा क्षेत्र में होने की वजह से पुण्य धरा नरसिंहपुर -बहुत सारे छुपे हुए और पहुंचे हुए संतो की तपोभूमि रही है। परमहंस स्वामी केशवानंद महाराज धूनीवाले दादा आजीवन नरसिंहपुर में ही साधना करते रहे। रजनीश आचार्य ओशो, महर्षि महेश योगी स्वामी स्वरूपानंद जी, हरिहर बाबा ,ब्रह्मचारी महाराज जैसे सिद्ध संत नरसिंहपुर रहे हैं। नरसिंह मंदिर परिसर में स्थित पीपल के बड़े पेड़ के नीचे एक चबूतरा बना हुआ था जो कि धूनी वाले दादा का साधना आसन था कहा जाता है कि सिद्ध महापुरुषों द्वारा की गई साधना की तरंगे दूर-दूर तक पहुंचती हैं और वही उनकी रक्षा कवच होती है जो उन्हें हिंसक जीव जंतुओं से प्रोटेक्ट सुरक्षित करती है अर्थात हिंसक जीव जंतु भी ऐसे महामानव के संपर्क में आकर हिंसा भूलकर प्रेमपूर्ण व्यवहार करने लगते हैं। धूनी वाले दादा -परमहंस केशवानंद मध्य प्रदेश के स्वामि रामकृष्ण परमहंस थे।इनका भव्य स्थान जीवित समाधि आज भी नरसिंहपुर में स्थित है।  


इसी स्थान पर दो और महान संतों की समाधि है कहते है जैसे भागीरथ ने स्वर्ग से गंगा धरती पर लाई थी वैसे ही यहां पर तपस्या करने वाले ब्रह्मचारी बाबा जी ने मां नर्मदा को अंतिम समय में बुलाया क्योंकि वह रोज सुबह ब्रह्म मुहूर्त में मां नर्मदा के स्थान जो कि वहां से 12 किलोमीटर दूर था पैदल जाते थे परंतु शारीरिक रूप से अशक्त हो जाने की वजह से वे अपने अंतिम समय में मां नर्मदा जी के दर्शन को नहीं जा पा रहे थे और उन्होंने प्रार्थना की कि मां मैं कैसे आऊं दर्शन के लिए मां उनकी पुकार पर प्रकट हुई और  आज भी कुंड के रूप में उस स्थान पर मां नर्मदा जी का अस्तित्व है। और वे ब्रह्मचारी महाराज जी के स्थान पर प्रकट हुई इसीलिए इस स्थान को झिरना कहा जाता है । मां नर्मदा जल की एक झिर यहां सतत बनी हुई है। पितृपक्ष में लोग यहां अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने भी आते हैं। पास में ही आठ सौ  साल पुराना  बहुत ही सुंदर जगदीश मंदिर है।

जगद्गुरु स्वामी स्वरूपानंद महाराज का  शांत सुंदर आश्रम भी नरसिंहपुर से तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ।  स्वामी स्वरूपानंद जी हिन्दू आध्यात्मिक  गुरु और स्वतंत्रता  संग्राम  सेनानी हैं। 

दैवीय कृपा फलीभूत होने पर  हमारा ट्रांसफर जबलपुर से नरसिंहपुर हुआ । हमारी दादी जिन्हें सभी 'अम्माजी' बोलते थे नरसिंहपुर  में रहती थीं । नरसिंहपुर में हमारा बहुत बड़ा पुश्तैनी मकान था जो आश्रम या देवालय जैसा लगता था। आस पड़ोस के लोग भी पारिवारिक सदस्य जैसे ही रहते थे। अम्माजी को बागवानी का बहुत शौक था । नरसिंहपुर मकान का बाड़ा बहुत बड़ा था,  बाड़े में अमरूद, अनार, सीताफल, नीम,  मुनगा, लाल कन्हेर, नीबू और रंगून से लाए गए  सुंदर क्रोटन  बड़े बड़े गमलों में लगे हुए थे। 

एक हरे रंग का तोता भी हमारे यहां पाला गया था जो वारांडा में पिंजरे में टंगा हुआ बोलता रहता था - मिट्ठू चित्रकोटी... दूध रोटी ....सीताराम,  जय राम जी की....। घर में एक गौशाला भी थी ।एक बड़ा कुआं जहां से आस पास के सभी लोग पानी भरते थे और एक चक्की थी जहां पूरे मोहल्ले की औरतें आटा पीसने आती। एक बार की बात है हमारे मोहल्ले में एक घर में आग लग गई जिसमें उनका बहुत नुकसान हुआ और उस समय हमारे घर में ही जल का स्रोत कुंआ था हमारे घर के सभी सदस्यों ने दादाजी और पापाजी ने कुएं में बाल्टी डालकर पानी खींचा और उनके घर में लगी हुई आग बुझाई। आज भी हमारे पड़ोस का यह परिवार इस पुण्य कार्य के लिए हमारे परिवार बहुत आभारी हैं और इस बात को बार-बार दोहरा कर हमारे ki का आभार व्यक्त करता है। पड़ोस के लोग कहते कि अम्मा जी और बाबू जी का परिवार तो देवताओं का परिवार है।
जरा सी आहट होती तो तोते अपने स्वर में बोलने लगते साथ साथ अन्य  पक्षियों की बोली भी वातावरण में सुनना बहुत अच्छा लगता । घर का कोई भी सदस्य दरवाजा खोलकर अंदर आता तो वह अपनी बोली में उसका स्वागत करता। अमरूद  के तीन पेड़ लगे थे सबसे बड़े वाले पेड़ पर हरे रंग के तोते का पिंजरा टंगा रहता  और उसी पिंजड़े में उसका एक कटोरी में दूध - भात और एक कटोरी में पानी रखा रहता।

बड़ी बुआ का परिवार नरसिंहपुर के घर में ही एक तरफ के पोरशन में किराए से रहता था क्योंकि फूफा जी इरीगेशन डिपार्टमेंट में काम करते थे। हमारी मां के भाई भी यानी हमारे मामा जी भी हमारे घर के पास ही रहते जो कि व्यवसाय से सब इंजीनियर थे।  गाडरवारा में पोस्टिंग के दौरान उन्होंने हमारे माता-पिता का रिश्ता तय करवाया था और उसी दौरान  उन्होंने शक्कर नदी पर पुल भी बनवाया था जो आज भी कायम है और ट्रेन से या बस से जाते समय दिखाई देता है। कुछ समय तक हमारे पड़ोसी के रूप में रहने के बाद हमारी मां के भाई याने मामा जी गवर्नमेंट पीजी कॉलेज के सामने बने हुए बंगले में शिफ्ट हो गए आजकल यह बंगले न्यायाधीश और पीजी कॉलेज के प्राचार्य को एलॉटेड हैं।

हमारी बड़ी बुआ के पांच बच्चे और छोटी बुआ के तीन बच्चे हमारे  नरसिंहपुर के इसी घर में पैदा हुए ।  मकान के दो पोर्शन थे एक पोरशन में दो बहुत बड़े-बड़े हॉल दहलान और एक रसोईघर और एक भंडार गृह था। और दहलान के सामने बहुत बड़ा आंगन था। आंगन के पास कुआं था और कुएं के उस तरफ पक्का डबल स्टोरी मकान था। जिसका मुख्य दरवाजा बिल्कुल नरसिंह मंदिर के सामने मेन रोड पे खुलता । ऊपर के फ्लोर पर एक कमरा और दोनों तरफ खुला हुआ छत याने बालकनी थी। छत की ओर आने वाली सीढ़ियां अंदर और बाहर दोनों तरफ बनी हुई थी। बीच के हॉल से भी सीढ़ियां छत की ओर जाती थी और आंगन में बनी हुई सीढ़ियां भी खुले हुए छत तक जाती थी। हमारी दादी हमें हमेशा छत पर जाने से रोकती थी क्योंकि उसका कंस्ट्रक्शन पुराना था और उन्हें लगता था कि कहीं हम लोग पैराफिट वॉल पर झुक कर नीचे ना गिर जाए‌ ।  corridor से रेलवे ट्रैक भी दिखाई देता था ट्रेन की सीटी और छुक छुक की आवाज सुनकर हम बच्चे छत से ट्रेन का जाना आना देखते थे। और कई बार मालगाड़ी के डब्बे गिनते थे।

नरसिंह मंदिर परिसर में घर होने से  सुबह शाम जब भी शंख और घंटी बजती आरती होती तो हमारे पूरे घर में घंटी और शंख की आवाज गूंजती थी। अम्माजी पढ़ी लिखी थी। सन 1946 में अंग्रेजी में बात कर लेती थी। जब वे शुद्ध हिंदी मैं बात करती तो मोहल्ले की औरतें बोलती कि आप तो अंग्रेजी में बोलती हो। मोहल्ले की औरतों को खड़ी हिंदी भी समझ में नहीं आती थी तो अंग्रेजी की तो बात बहुत दूर है। अम्माजी मोहल्ले की सभी औरतों को वरांडा में बैठा कर रामचरितमानस की चौपाइयां सुनाती और उनका अनुवाद करती।  रामायण सुनने के बाद सभी औरतें अम्मा जी के चरण स्पर्श कर कर उनका आशीर्वाद लेती थी।आस पड़ोस के लोग अम्माजी को रंगून वाली अम्माजी के नाम से सम्मान देते।  नरसिंह मंदिर प्रांगण में अम्माजी के उम्र बहुत से वयो वृद्ध जन एकत्रित होते और  जब वे उन्हें  नरसिंह मदिर प्रांगण में आमंत्रित करते  तब वे कहती कि वहां सब बैठकर अपनी अपनी बहुओं की बुराई करने पंचायत करते हैं इसलिए हम अपने घर से ही नरसिंह भगवान के दर्शन कर लेते हैं। 

दादी मां हमें रंगून विश्व युद्ध World War ll  की  कहानियां सुनाती। बाबूजी यानी दादाजी और छोटे बाबूजी याने हमारे छोटे दादाजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ आज़ाद  हिन्द फौज में सक्रिय ओजस्वी सदस्य थे।वे चौदह भाषाओं को जानते थे और आज़ाद हिंद फौज अखबार के चीफ एडिटर थे।उन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ी और अंग्रेजों को मौत के  घाट उतार दिया । उन्हें 1945  में युद्ध के समय किसी जापानी ने पीछे से गोली मार दी ऐसे वीर क्रांतिकारी योद्धा को शत शत नमन । इनका नाम इतिहास में गुमनाम है और ना ही कोई उनकी याद मे प्रतिमा। क्युकि आजादी तो चरखे से आई है और महान तो अकबर है। आइए इन महान राष्ट्रभक्त के नाम पर  'जय हिन्द'  का नारा लगाएं।

सुुभाष चंंद्र बोस स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी तथा सबसे बड़े नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आजाद हिंद फौज का गठन किया था । उनके द्वारा दिया गया जय हिंद का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूँगा" का नारा भी अत्यधिक प्रचलन में आया। भारतवासी उन्हें नेता जी के नाम से सम्बोधित करते हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध वर्ष 1939-45 के बीच होने वाला एक सशस्त्र विश्वव्यापी संघर्ष था। इस युद्ध में दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी गुट धुरी शक्तियाँ  जर्मनी, इटली और जापान
 तथा मित्र राष्ट्र फ्राँस, ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और कुछ हद तक चीन शामिल थे।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस देश को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए जापान से जा मिले जो उस युद्ध में अंग्रेजों का दुश्मन था. नेताजी ने जर्मनी जाकर हिटलर से हाथ मिलाया और उसके बाद सिंगापुर जाकर आजाद हिंद फौज की कमान संभाली. और जापानी सेना की मदद से पूर्व की ओर से भारत में प्रवेश करने का प्रयास किया। 19 मार्च1944 को पुर्वोत्तर में आजाद हिंद फौज  ने भारत में प्रवेश किया और देश की आजाद जमीन पर अंग्रेजों से जमीन छीन कर पहली बार तिरंगा फहराया गया था।  इस बीच, सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में, जापान ने भारतीय युद्धबन्दियों की एक सेना स्थापित की, जिसे आजाद हिंद फौज का नाम दिया गया ।

 बाबूजी  ऊंचे कद के 6 फुट 3 इंच के महान व्यक्ति थे उनका व्यक्तित्व युग पुरुष जैसा रहा - न भूतो न भविष्यति।

अम्माजी ने कैसे ६ महीने की  हिन्द महासागर की जहाज यात्रा अपनी मांजी  यानी सास , बाबूजी यानी पति और बड़ी बुआ यानी उनकी बड़ी बेटी जो ढाई साल की थी  और  गर्भस्थ शिशु यानी मेरे पिताजी के साथ  की और कोलकाता के राजमहल पहुंची? हमें सुनाती रहतीं । वहां के  महाराजा ने उनका कैसे सहृदय स्वागत सत्कार किया। फिर वहां से  कैसे वे सभी लखनऊ पहुंचे   ये सब बातें हम बहुत उत्साह से सुनते। उनके साथ उनका वफादार नौकर टिड़ी  भी था। हिन्द महासागर पार करके अपने देश में जाने के लिए उनके पास दो ही उपाय थे  एक तो विमान से जाना और दूसरा पानी के जहाज द्वारा यात्रा पूरी करना। समुद्री यात्रा के संस्मरण पर  बहुत सारी किताबें  लिखी गई हैै और फिल्में बनाई गई हैं 

आज जब हम जहाज यात्राा की बात करते हैं तो  टाइटैनिक फिल्म का जहाज का चित्र आंखों के सामने आ जाता है Titanic दुनिया का सबसे बड़ा वाष्प आधारित यात्री जहाज था। वह साउथम्पटन इंग्लैंड से अपनी प्रथम यात्रा पर, 10 अप्रैल 1912 को रवाना हुआ। चार दिन की यात्रा के बाद, 14 अप्रैल 1912 को वह एक हिमशिला से टकरा कर डूब गया जिसमें 1,517 लोगों की मृत्यु हुई जो इतिहास की सबसे बड़ी शांतिकाल समुद्री आपदाओं में से एक है। 

समुद्री लुटेरे, सिंदबाद जहाजी और समुद्र के सम्राट नाम से कई किताबें लिखी गई हैं। समुद्र की दुनिया एक अलग ही दुनिया है जिसका धरती की दुनिया से कोई मेल नहीं। फिल्म लाइफ ऑफ पाई' में समुद्री जीवन का चित्रण  किया गया है ।

दादी मां बताती  विश्व युद्ध के समय हिरोशिमा पर बम पटके जाते थे जिसकी धमक रंगून तक आती थी। हिरोशिमा और नागासाकी परमाणु बमबारी 6 अगस्त 1945 की सुबह अमेरिकाा वायु सेना हवाई जहाज द्वारा जापान के हिरोशिमा पर परमाणुु बम गिराया गया।  और उसके तीन बाद ही अमरीका ने  फिर से  नागासाकी शहर पर परमाणु बम गिराया।

रंगून से भारत आने के बाद बाबूजी ने जबलपुर में 
सूपाताल में हवेली खरीदी थी । चूंकि जबलपुर में आयुध निर्माण फैक्ट्री ,गन केरेज फैक्ट्री  वीकल फैक्ट्री और खमरिया फैक्ट्री है  और विश्व युद्ध का समय था अतः बाबूजी ने नरसिंहपुर में नरसिंह मंदिर परिसर में नवाब साहब की हवेली  1946 में ढाई हजार रूपए में खरीदी । दादी को आशीर्वाद था कि उनका निवास स्थान किसी देवालय के समीप हो होगा ।  नरसिंह मंदिर परिसर में  हवेली स्थित है। समय के ढाई हजार आज के ढाई करोड़ के बराबर होते थे। यह मकान राव साहब का था जिनका सुंदर महल आज भी हमारे घर के पास पूरी आन बान शान से खड़ा हुआ हैं। कहा जाता है इस महल की रानियां सुरंग से नरसिंह मंदिर हाथी पर बैठकर जाती थी। महल के सामने की ओर सिंगरी नदी का घाट बना हुआ है और महल के पश्चिमी तरफ नरसिंह मंदिर। धूनी वाले दादा ने नरसिंह मंदिर परिसर में पीपल के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बहुत समय तक बसेरा किया ।
 
नरसिंह मंदिर  एक भव्य स्मारक है जो सात मंजिल की है यह मंदिर एक ही खंबे पर खड़ा हुआ है। नरसिंह मंदिर के पीछे तालाब और सुंदर घाट बना हुआ है। नरसिंह मंदिर बहुत से विदेशियों के लिए पुरातात्विक रिसर्च का प्रमुख आकर्षण केंद्र है। नरसिंह मंदिर परिसर में ही शिव जी और हनुमानजी के छोटे मंदिर स्थापित है। 

अम्माजी नरसिंहपुर से जबलपुर  यदा -कदा  हमारे पास आ जाती थीं।  अम्माजी कभी- कभी भोपाल  में बड़ी बुआजी के यहां भी रहतीं थी। उनकी उम्र  लगभग अस्सी वर्ष पार कर चुकी थी। ईश्वर की असीम अनुकंपा से वे ट्रेन यात्रा कर लेती थीं।अम्माजी एक बहुत ही शानदार व्यक्तित्व की स्वामी थी। उनकी आवाज सोहराब मोदी सी दबंग थी। आस पड़ोस के लोग उनकी आवाज के डर से यहां वहां छुप जाते थे। हम तीनो भाई बहन को उनकी आज्ञा के बिना कोई छू भी नहीं सकता था। हम सब उन्हीं की कस्टडी में रहते थे। मैं तीनो भाई बहनों में सबसे बड़ी हूं। मेरे से बड़ी एक और मेरी बहन थी जिन्हें लीवर प्रॉब्लम हुआ और वे सवा साल की उम्र में ही चल बसीं। उन्हें सब मोना मोनू के नाम से पुकारते थे। वह देखने में बहुत ही सुंदर समझदार और छोटी सी उम्र में ही बहुत ही ज्यादा ईश्वर परायण भक्त रही। हमारी दादी और परिवार के सभी जन मोनू दीदी से बहुत ज्यादा प्यार करते थे।उनकी मृत्यु के बाद हमारी दादी ने देवी मां से घर में पुनः मोनू के रूप में लक्ष्मी जी आए ऐसी प्रार्थना की और मेरा जन्म हुआ।

नरसिंह मंदिर के पास एक राजगिरा के लड्डू बेचने वाली बूढ़ी औरत दुकान लगा कर बैठती थी। नरसिंह मंदिर के पास ही सब्जियों की दुकान भी लगती थी। अम्मा जी रोज शाम को जब सब्जी लेने जाती तब हम तीनों बच्चों के लिए कुछ  चटपटा मीठा ले  आतीं-  जो हम बहुत ही चाव से खाते थे। सबसे छोटा भाई तो हमारी मां की गोद में पांच साल की उम्र तक रहा और पांच साल की उम्र के बाद ही उसने मां का दूध पीना छोड़ा।  हमारी मां कभी भी घर से बाहर नहीं जाती थीं। वे हमेशा अपने घर के काम काज में ही व्यस्त रहतीं थीं।  पड़ोस के  छोटे बच्चों को दुल्हन चाची का चेहरा देखने एक झलक पाने की बहुत उत्सुकता रहती। दुल्हन चाची से सभी बच्चे बहुत प्यार करते।  मां एक दिन में एक स्वेटर बुं लेती थीं। सिलाई कढ़ाई बुनाई और रसोई का विशेष ज्ञान था उन्हें । मां बहुत ही सज्जन और सेवाभाव प्रधान  थीं। हम तीनों बच्चे उनके बहुत लाडले थे। मै चूंकि लड़की थी और तीनों भाई बहिनों में सबसे बड़ी थी तो मुझे  सबका सबसे ज्यादा लाड प्यार मिला। मां ने मुझसे कभी कोई काम नहीं करवाया । हम तीनों। बच्चे देर तक सोते रहते थे और वे रसोई घर में खाना बनातीं रहतीं थीं। जब मैं ढाई तीन साल की थी तब मां मेरे लिए बहुत सुंदर फ्रॉक बनाई थी, एक गरम कपड़े की लाइट कलर फ्रॉक जिस पर उन्होंने रेड कलर से मुर्गा- मुर्गी और चूज़े बनाए थे । वह  सजीव सी कलाकारी देखते ही बनती थी। उन्होंने मेरे लिए  अपने हाथ से बहुत कपड़े सिले। आस - पड़ोस के लोग देखते तो बहुत प्रशंसा करते। कोलकाता की फेशन एंड डिजाइन कंपनी से उनके लिए जॉब  ऑफर भी आया परंतु उन्होंने स्वीकार नहीं किया। मां बायोलॉजी स्टूडेंट थीं उनकी इच्छा भी चिकित्सक बनने की थी । उन्होंने रायपुर में गर्ल्स कॉलेज में बीएससी में एडमिशन लिया । अपने कॉलेज के दिनों में ही वे बहुत फैशनेबल सलवार कुर्ते पहिनतीं थीं और कार से कॉलेज जातीं थीं। 

दादी मां की कद काठी  अत्यंत आकर्षक- लंबी दुबली -सुंदर नयन नक्श वाली मिल्की व्हाइट- गौर वर्ण  की सशक्त कुशल ग्रहणी और सम्मानित महिला थीं। 

जबलपुर में भी हमने बहुत सारे फूल और सुंदर आकर्षक पेड़ पौधे लगाए हुए थे। जानकीनगर उद्यान के सामने हमारा सुंदर बंगला था जिसका किराया स्टेट बैंक देती थी। जानकीनगर का सुंदर पार्क बहुत सुंदर फूलों से भरा हुआ एक ऐसा स्थान जहां लोग फोटो खिंचवाने आते, यह बच्चों का प्रिय मनोरंजन स्थल, झूला, पीपल के नीचे चबूतरा एक लाइन से लगे हुए सुंदर सूरजमुखी होलीहॉकस हिबिस्कस के फूल के बीच रास्ते में से जब कोई नवविवाहित कपल घूमता हुआ दिखाई देता तो  सिलसिला फिल्म का  गाना - देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए याद आ जाता। वसंत ऋतुु में पार्क किसी फिल्म की शूटिंग जैसे स्थान से कम नहीं लगता ।
 यह पार्क हमेशा फूलों से खिला रहता और सुगंध और जीवन से भरपूर रहता । कई विदेशी नस्ल के फूलों जैसे- डेल्फीनियम, फॉक्सग्लो, और हॉलीहाक्स के विविध रंगों से सजा, हंसमुख डेज़ी  से सूसज्जित हिस्सा यह पार्क  कॉलोनी का मुख्य आकर्षण केंद्र और एक शानदार स्थान था।  बेला, जुही, रातरानी , चंपा, चमेली गुलाब के फूलों से युक्त सुगंधित हवा बहती तब यह  रोमांटिक स्थान ,फूलों के शहर में हो घर अपना जैसा लगता था। बच्चेेे झूला झूलते, खेलते ।

हमने जानकीनगर जबलपुर में गेट के पास एक सुंदर फूलों का पौधा लगाया था उसकी बेल गेट पर चढ़ती है और गेट बहुत ही सुंदर आकर्षक बन जाता है। हम उस फूल को बोगनविलिया कहते थे।हमारी दादी ने बताया कि यह पेड़ उन्होंने अपने घर रंगून में भी लगाया था और बाबूजी यानी दादा जी इसे बेगम बेलिया कहते थे अर्थात इस पेड़ में बिना गम के फूल आते है  यह पेड़ इतना फूलता है जैसे कि इसे कोई गम ही नहीं है।

मैं बायोलॉजी स्टूडेंट थी। 1990- 1993 में मैं प्री- मेडिकल टेस्ट की तैयारी कर रही थी सुबह पांच बजे स्कूटी से उप्पल क्लासेस कोचिंग पढ़ने जाती थी। उस समय स्कूटी से स्कूल या कोचिंग जाना बहुत बड़ी बात थी।  सुबह  पांच - पौने छह बजे तक उप्पल कोचिंग  क्लासेस का बड़ा हॉल इतना ज्यादा भर जाता था कि दरवाजे के पास खड़े होने तक की जगह नहीं होती थी। हमें सुबह जल्दी उठना पड़ता था। मेरा बेड  और टेबल अम्माजी के ही कमरे में लगा हुआ था। स्कूल की छुट्टियां ज्यादा रहती थीं। आरक्षण आत्मदाह , राम जन्मभूमि- बावरी मस्जिद दंगा फसाद अपनी ऊंचाई पर था।कई बार तो स्कूल से वापस आना ही बहुत मुश्किल हो जाता। चारों तरफ से रास्ते बंद रहते। स्कूल बस का घंटों इंतजार करते  परंतु बस भी समय पर नहीं पहुंचती। फिर हम एक ही कॉलोनी में रहने वाले दोस्त अपने पैरेंट्स को बुलाते और कार से घर पहुंचते वो भी दूर दूर के रास्तों से । एक बार तो मदन महल कि पहाड़ियों के पास से घूमकर हम रानीताल पहुंचे । कहने का अर्थ स्कूल बंद थे। घर में ही जितनी पढ़ाई हो सके हो जाती। मै अम्माजी से बोलती-  अम्मा जी आप मुझे  सुबह जल्दी उठा देना  पढ़ना है तो वह 4:30 बजे की जगह 2:00 बजे ही उठा देती थी।  मुझे हंसी आती और खुशी भी होती कि कम से कम उन्होंने मुझे उठाया तो ।

कई बार कर्फ्यू के दौरान  कोचिंग बाजार सभी बंद रहते थे और जबलपुर का वातावरण कुछ नकारात्मक सा रहता , मुझे लगता है कि यदि मेरा प्री मेडिकल टेस्ट में सिलेक्शन नहीं हुआ और मैं मेडिकल कॉलेज में एडमिशन नहीं ले पाई तो यह जीवन व्यर्थ है। जबलपुर के शिक्षण संस्थान चाहे दीपिका क्लासेज हो या शासकीय स्कूल  सभी फर्जीवाड़ा केंद्र स्थल,  सिर्फ फ्री की सैलरी पाने का माध्यम।  प्रोफेशनल दृष्टिकोण के टीचर्स थे जो पैसे तो रखवा लेते थे परंतु पढ़ाते कुछ नहीं थे। यही हाल सरकारी स्कूलो का भी था नाम बड़े और दर्शन छोटे। कभी टीचर आते तो कभी स्टूडेंट नहीं आते कभी स्टूडेंट्स आते तो टीचर्स नहीं आते तो मुझे लगता अब मैं क्या करूं ऐसे मौके पर जब कुछ समझ नहीं आता  क्या करें और क्या न करें  इस भटकाव से उबरने के लिए अम्मा जी हमेशा प्रोत्साहित करती। अम्माजी से मुझे जीवन संग्राम लड़ने की शक्ति मिली। दो बार के प्रयासों के बाद में प्री मेडिकल टेस्ट मैं पास हो गई। परंतु दुर्भाग्यवश मैं मेडिकल कॉलेज में नही पढ़ पाई।

उस समय जबलपुर में हमारे घर में टाइम्स ऑफ इंडिया न्यूज़ पेपर आता था। हम तो कई कई दिन तक न्यूज़ पेपर नहीं पढ़ पाते थे और अम्माजी रोज न्यूज़पेपर बहुत ही इंटरेस्ट से पढ़ती थी। दादा जी के साथ रंगून में रहने की वजह से उनकी  अंग्रेजी परिष्कृत हो चुकी थी। जानकीनगर के आस पड़ोस के लोग भी अम्मााजी से
बात करने घर आते।   

जानकीनगर के बड़े हॉल में पूजा स्थान बना था कभी कभी पूजा के समय मेरे  भाई मुझे डिस्टर्ब  करते थे  जैसे टीवी का साउंड लाउड कर देना या जोर जोर से बात करना ।जिससे पूजा पाठ में डिस्टर्ब होता  ध्यान विचलित हो जाता ये सब अम्माजी देखती सुनती रहतीं फिर प्रेम से कहती बेटा तुम सूर्य भगवान के सामने जाकर  माला कर लो।

1985-86- 1994 तक दादी मां  ट्रेन यात्रा करतीं रहीं। 1995 में उनका पार्थिव शरीर नहीं रहा। हमलोग जबलपुर जानकी नगर में रहते थे और वहीं पर मकान खरीद कर रहने वाले थे कि 1997 में ऐसा भूकंप आया कि जानकीनगर के कुछ मकान और विजय नगर के बहुत सारे नव निर्मित मकान ध्वस्त हो गए। 

नरसिंहपुर में हमारे पूज्य गुरुदेव महाराज हमारे पिताजी के गुरु भाई पूज्य ललित बिहारी श्रीवास्तव जी के पास चातुर्मास करने आते रहते थे । हमारे माता पिता कुंडलनी शक्ति साधक , अतः हमने निर्णय किया कि नरसिंहपुर में ही मकान बनाया जाए। पुराना मकान महल नुमा बना हुआ था । बहुत मोटी मोटी दीवारें थी इतनी मोटी कि  एक ट्रैक्टर चला जाए। हमें मकान बनवाने में दो  साल लग गए क्योंकि हमने मकान तुड़वा कर बनवाया था। मकान की प्रथम नींव गुरुदेव महाराज के शुभ हाथों से ही स्थापित हुई। मकान बहुत बड़ा बना था। हालाकि छोटा ही बनवाना चाहते थे । परंतु हरि इच्छा बलवान।

पिताजी को अपने गुरु के साथ रहने की उत्कट लालसा थी। हमारी माताजी और पिताजी दोनों के ही  माता - पिता नहीं थे। पिताजी के बाबूजी स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के बाद देश स्वतंत्र होने के बाद ही नहीं रहे अतः हमारी दादी ने ही पिताजी की बहुत अच्छी परवरिश की और उनके आशीष से  पिताजी बैंक में उच्च  अधिकारी के पद पर पदस्थ हुए । दादी मां का ना रहना हम सभी के लिए बहुत दुखद था।

अब माता - पिता दोनों ही  गुरुदेव के प्रेम में विभोर। गुरुदेव ही उनके सब कुछ।
त्वमेव माता  पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणम् त्वमेव ।त्वमेव सर्वम् मम देव देव ॥

मकान  बन कर तैयार हो गया था ।यह 1999 -2000 की  एक छोटी सी घटना  है।तब स्वामी जी महाराज हमारे साथ नरसिंहपुर  में रहते थे। गुरुदेव का कमरा अलग  ध्यान भजन हेतु मंदिर सा पवित्र सेपरेट  था ।
परम पूजनीय स्वामी जी गुरुदेव महाराज जी को सूर्यनारायण के दर्शन करना बहुत सुन्दर लगता था | 

उगते हुए सूर्य को देखकर और छत से ही नरसिंह भगवान के दर्शन करके वे  बहुत ही आनंदित होते थे।हमें भी सूर्योदय दर्शन बहुत अच्छा लगता है क्योंकि सूर्योदय होते ही सभी पक्षी चहचहाते है। सूर्योदय  एक नई आशा और उत्साह लेकर आता हैं | सूर्योदय सौंदर्यपान करने योगी जन सूर्योदय से पहले उठते है उस समय सारा आकाश सिन्दूरी रंग से भरा हुआ होता है और  सूरज शीतल किरणें  पेड़ पौधों, पक्षियों और जन जन में प्राण का संचार कर देती हैं।

गुरुदेव महाराज सूर्योदय का सुबह बहुत उत्सुकता से इंतजार करते थे | उनको लगता था कि सूर्य नारायण के दर्शन कब होंगे सुबह 3:00 से 4:30 -5:00 बजे तक ध्यान करते थे और उसके बाद फिर सुबह की सैर करने निकलते थे। तत्पश्चात वे सूर्य नारायण के दर्शन करने के लिए लालायित रहते थे।

पहले तो यह बात नहीं मालूम थी कि गुरुदेव महाराज इतनी उत्सुकता से प्रतीक्षा क्यों करते हैं  सूर्य उदय की और इतना आनंदित क्यों होते हैं सूर्य उदय होने पर? परंतु जब महायोग विज्ञान पढ़ी तब समझ में आया कि  महायोगियों को सूर्यदेव में साक्षात चतुर्भुज विष्णु रूप के दर्शन होते हैं।ऐसे सदगुरुदेव भगवान को कोटि-कोटि प्रणाम है।


Monday, April 6, 2020

सूर्य साधना - मां

पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीव-जंतु प्रकृति पर निर्भर है और प्रकृति  सूरज पर निर्भर है। अगर सूरज की किरणें पृथ्वी पर पहुँचे तो पृथ्वी का विनाश हो जाएगा,सभी ओर अंधकार छा जाता है  पृथ्वी के सागर महासागर वाष्प बनकर उड़ जाएं। पृथ्वी पर भयानक प्रलय छा जाए और पृथ्वी पर से जीवन का नामोनिशान ही मिट जाए।यह एक सर्वमान्य सत्य है कि हिन्दू धर्म में सूर्य को जीवंत देवता का दर्ज़ा दिया गया  है। वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, हिंदू सूर्य को भगवान मानकर उनकी पूजा करते हैं और सुबह जल  अर्पण करते है।

हिन्दू धर्म में छठ पर्व में सूर्य की पूजा षष्ठी को की जाती है। सूर्यषष्ठी व्रत में ब्रह्म और शक्ति प्रकृति और उनका अंश षष्ठी देवी, दोनों की पूजा साथ-साथ की जाती है, इसलिए व्रत करने वाले को दोनों की पूजा का फल मिलता है। इस पूजा की यही बात इसे खास बनाती है।श्वेताश्वतरोपनिषद् में बताया गया है कि परमात्मा ने सृष्टि रचने के लिए खुद को दो भागों में बांटा। दाहिने भाग से पुरुष और बाएं भाग से प्रकृति का रूप आया। 

ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में बताया गया है कि सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी के एक प्रमुख अंश को देवसेना कहा गया है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक प्रचलित नाम षष्ठी है। पुराण के अनुसार यह देवी सभी बालकों की रक्षा करती हैं और उन्हें लंबी आयु देती हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में ऐसा जिक्र मिलता है-

''षष्‍ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्‍ठी प्रकीर्तिता,बालकाधिष्‍ठातृदेवी विष्‍णुमाया च बालदा।आयु:प्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी,सततं शिशुपार्श्‍वस्‍था योगेन सिद्ध‍ियोगिनी''।

मेरा जन्म पश्चिम बंगाल में हमारे बड़े मामाजी के यहां हुआ वे पेशे से इंजीनियर थे।उनके कार्यकाल में रहने के दौरान कोल माइंस में कोई भी दुर्घटना नहीं घटी अतः 1986 में उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे जेनरल मैनेजर के पद पर पदस्थ थे।तब हमलोग शहडोल के पास कोतमा में रहते थे और  वे कोतमा के पास कोलमाइंस मनेंद्रगढ़ जिले के  झगराखंड  में।z

मामाजी के यहां छठ पूजन होता था।बिहार बंगाल में सूर्य को साक्षात देवता माना जाता है और सूर्य उपासना का बहुत ज्यादा महत्व है। सूर्योपासना त्वरित फलवती होती हैं। भगवान राम  सूर्यवंश के वंशज हैं।  भगवान श्रीराम के पूर्वजों को सूर्योपासना से ही दीर्घ आयु प्राप्त हुई थी। श्रीकृष्ण के पुत्र सांब की सूर्योपासना से ही कुष्ठ रोग से निवृत्ति हुई।

भगवान हनुमान सूर्य देवता को अपना गुरु मानते थे। सूर्य देव के पास 9 दिव्य विद्याएं थीं। इन सभी विद्याओं का ज्ञान बजरंग बली प्राप्त करना चाहते थे। सूर्य देव ने इन 9 में से 5 विद्याओं का ज्ञान तो हनुमानजी को दे दिया, लेकिन शेष 4 विद्याओं के लिए सूर्य के समक्ष एक संकट खड़ा हो गया। शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान सिर्फ उन्हीं शिष्यों को दिया जा सकता था जो विवाहित हों। हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे, इस कारण सूर्य देव उन्हें शेष चार विद्याओं का ज्ञान देने में असमर्थ हो गए। इस समस्या के निराकरण के लिए सूर्य देव ने हनुमानजी से विवाह करने की बात कही। पहले तो हनुमानजी विवाह के लिए राजी नहीं हुए, लेकिन उन्हें शेष 4 विद्याओं का ज्ञान पाना ही था। इस कारण हनुमानजी ने विवाह के लिए हां कर दी। 

हनुमान जी की रजामंदी मिलने के बाद सूर्य देव के तेज से एक कन्‍या का जन्‍म हुआ। इसका नाम सुर्वचला था। सूर्य देव ने हनुमान जी को सुवर्चला से शादी करने को कहा। सूर्य देव ने यह भी बताया कि सुवर्चला से विवाह के बाद भी तुम सदैव बाल ब्रह्मचारी ही रहोगे, क्योंकि विवाह के बाद सुवर्चला पुन: तपस्या में लीन हो जाएगी। हिंदु मान्‍यताओं की मानें, तो सुवर्चला किसी गर्भ से नहीं जन्‍मी थी, ऐसे में उससे शादी करने के बाद भी हनुमान जी के ब्रह्मचर्य में कोई बाधा नहीं पड़ी। और बजरंग बली हमेशा ब्रह्मचारी ही कहलाए।

मध्यप्रदेश में छठ पूजा का ज्ञान बहुत ही कम लोगों को है। जबलपुर में भी हमारे एक और मामा जी रहते थे जिनके हाथ छठ उत्सव धूमधाम से मनाया जाता था।

मां कृत्रिम बनावटी जीवन जीने के बजाय,  दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश करने के बजाय वास्तव में एकांत में आनंदित रहती थी। साधारण जीवन जीने की वजह से वे अपने संस्कारों के करीब थीं और इसलिए वे अपने परिवार के सदस्यों के करीब थीं और परिवार द्वारा दिए गए प्रेम से ही वे बहुत खुश और संतुष्ट रहतीं।मां कम से कम चीजों में ही संतुष्ट रहतीं और अपने साथ अधिक से अधिक समय बिताने की वजह से  वे अपने आपको पहचान चुकी थीं  कि वे वास्तव में कौन हैं।आनंद आंतरिक गुण है वह हर परिस्थिति में अपने कि आनंदित रखतीं बाह्य जगत से उनका रिश्ता मात्र भौतिक आवशयकताओं  दैनिक मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र का था।  सादा जीवन जीने और बड़ी सोच रखने कि वजह से ही आंतरिक शांति और आनंद से परिपूर्ण रहतीं।

मां के जीवन की सबसे विशेष बात यह थी कि उन्हें सादगी सरलता निष्छलता ज़रूरतों और इच्छाओं को सीमित कर जीने की कला आती थी उनका कहना था  इच्छाओं का  कोई अंत नहीं है। उन्होंने कभी भी अपने पड़ोसियों, मित्रों और रिश्तेदारों को प्रभावित करने के लिए कोई कार्य नहीं किया वे दूसरों की  आवश्यकता पड़ने पर मदद करने प्रयासरत थे। बहुत कम लोग सादा सरल जीवन जीते हैं, लोग अपनी बड़ी संपत्तियों से दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं अपनी भव्यता का रौब जमाना चाहते है।

हमारी दादी मां भी सूर्योदय से पहले ही उठ जाती । उनकी दिनचर्या में सूर्योदय से पहले उठना घर के कामकाज करना नित्य कर्म में शामिल था। लोग उनके बारे में कहते कि अम्माजी चिड़ियों के साथ सो जाती हैं और कौवों के साथ उठ जाती हैं । पुराने जमाने में घड़ी नहीं होती थी। समय देखने के लिए लोग सूर्य प्रकाश धूप का अनुभव कर लेते थे  कि अभी कितना बजा होगा अर्थात पुराने लोग सूर्य की लय के साथ समकालिक हो जाते थे । ब्रह्म मुहूर्त में उठना बल बुद्धि विद्या का द्योतक समझा जाता था ब्रह्म का समय या शुद्ध चेतना या शुभ और प्रातः काल के इस समय उठना सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

दादी मां अपनी वृद्धावस्था में भी विशाल ऊर्जा से  भरी रहती थी उनके अंदर आशा, प्रेरणा और शांति हर समय प्रकट होती थी। 

अम्माजी सभी विद्यार्थियों को ब्रह्म मुहूर्त में उठा देती उनका मानना था कि ब्रह्म मुहूर्त में स्वाध्याय करनेे से विद्यार्थी अपनेेेे लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैैं । उनको सुबह का वातावरण शुद्ध, शांत और सुखदायक लगता था।

गुरुदेव भी सूर्य को  सर्वशक्तिमान समझ सूर्योदय की प्रतीक्षा करते । उनके अनुसार  सृष्टि  सृष्टि का आधार  और ऊर्जा का श्रोत है।  इस समय ध्यान - भजन करने से मानसिक कृत्य में सुधार होता है। यह सत्वगुण बढ़ाने में सहायक है और रजोगुण और तमोगुण से मिलने वाली मानसिक चिडचिडाहट या अति सक्रियता और सुस्ती से निदान देता है। बिहार में छठ पूजा का विशेष  महत्व है।मां अपनी मां के घर छठ पूजा करती थी।   बिहार में लोग गंगा नदी में उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देते है उनका मानना है कि ऐसा करने से  नेतृत्व क्षमता  बल, बुद्धि ,विद्या, तेज, पराक्रम, यश एवं उत्साह में वृद्धि होती है । छठ  को सूर्यषष्ठी व्रत कहा जाता है जो बहुत कठिन होता है।  

सूर्य की पूजा के साथ छठ मैया की भी पूजा होती है।  हमारे यहां छठ पूजा का रिवाज नहीं था  अतः हमारे मामा जी के निमंत्रण पर हम लोग छठ की पूजा में शामिल होने उनके घर  जाते थे। छठ पूजा चार दिनों तक चलती। कार्तिक माह में दिवाली के बाद छठे दिन  यानी छठमी को यह त्योहार मनाया जाता। छठ का व्रत हमारी मामी करतीं थीं। नदी में स्नान और उगते और ढलते सूर्य की पूजा करतीं और सूर्य भगवान  को अर्पित करने छठ प्रसाद में  स्वादिष्ट मिठाई जैसे कि ठेकुआ, खीर, चावल के लड्डू बनाती। ठेकुआ बिहार का  प्रसिद्ध व्यंजन है । 

यह मीठा खुरमा या मीठी सलोनी का बड़ा रूप है। इसे गेंहू के आटे, चीनी -गुड़, नारियल और सूखे मेवों से बनाया जाता है । छठ पूजा के दूसरे दिन सूर्य देव को अर्पित  किया जाता है। इसके साथ कद्दू की खट्टी मीठी नमकीन सब्जी बनातीं स्वादिष्ट सब्ज़ी को तली हुई गरी के साथ मिलाया जाता है और व्रत को तोड़ने के लिए एकदम सही पकवान माना जाता।  हरे चने और आलू की सब्जी को छोले की सब्जी की तरह बनाया जाता। हरे चने को रात भर पानी में भिगोया जाता और अगले दिन घी में जीरा और हरी मिर्च के साथ बनाया जाता। इसे पुरी, कद्दू की सब्जी और एक मिठाई के साथ परोसा जाता गुड की खीर भी बनाई जाती जिसमें चीनी के स्थान पर गुड मिलाया जाता । चावल, पानी और दूध के साथ  खीर बनाइ जाती. यह मिठाई छठ पूजा का भोजन पूरा करती और इसे सेवन करने से पहले सूर्य देवता को भोग लगाया जाता। 

भोजन के दौरान यदि कोई भी आवाज होती तो भोजन को वहीं अधूरा छोड़ दिया जाता। मुझे याद है मामा जी के यहां एक ब्रूजो नाम का कुत्ता पला  हुआ था। जैसे ही छठ की पूजा करके मामी भोजन करने बैठी वैसे ही कुत्ते ने भोंकना शुरू कर दिया तो उन्हें वहीं पर खाना खाना बंद करना पड़ा।

मां छठ के बारे में बहुत सारी बातें बतातीं थीं। षष्‍ठी देवी को छठ मैया कहते हैं।  षष्ठी देवी को ब्रह्मा की मानसपुत्री भी कहा गया है, जो नि:संतानों को संतान देती हैं। आज भी देश के कई हिस्‍सों में बच्चों के जन्म के छठे दिन षष्ठी पूजा का चलन है। पुराणों में इन देवी के एक अन्‍य नाम कात्यायनी का भी जिक्र है, जिनकी पूजा नवरात्रि में षष्ठी को होती है। 


Saturday, March 9, 2013

अंधियारे मानस मंदिर में प्रभु भक्ति का दीप जला देना


प्रभु भक्ति   









सुबह सुबह धोती कुरता  पहनते हुए वे  राधेश्याम सीताराम धुन सुनते हुए  अपने अपनेघरों से निकलने के लिए तैयार होते हैं। हाथों  में मंजीरा, तुरही और लोकल वाद्य यन्त्र  बजाते हुएअपने अपने घरों से निकल कर वे एक टोली बनाते हुए नरसिंह मंदिर तक पहुँचते हैं प्रातःकाल का शांत वातावरण और चारों तरफ प्राकृतिक  हरियाली,  सूर्योदय की लालिमा, शांतिमय  सुहावना शुद्ध और प्रदूषण रहित वातावरण  और घंटे , मंजीरे , ढोलक के साथ  - "जय जय नरसिंह दया करके मेरी नाव  को पर लगा देना - अंधियारे  मानस मंदिर में प्रभु भक्ति का दीप जला देना" का समवेत स्वर सुनकर मंदिर के आस -पास रहने वाले घरों की गृहिणिया, बुजुर्ग अपने अपने हाथों में अगरबत्ती लेकर मंदिर के समक्ष  टोली  में शामिल हो जाती है और  प्रभातफेरी के सदस्यों के सुर में सुर मिलाने लगती है। नरसिंह भगवान् को धूप दीप नैवेद्य समर्पित कर रामधुन टोली उपस्थित भक्त  जनों को प्रशाद बांटते हुए आगे बढती है. सुबह का प्रशाद  बच्चों  के आकर्षण का मुख्य केंद्र रहता  है।

लोगों का विश्वास है कि  सुबह सुबह नरसिंहपुर के अधिपति  विष्णु अवतार श्री -लक्ष्मीनरसिंह भगवान् का स्मरण करने  से  उनके जीवन का दुःख दारिद्रय  दूर हो  जायेगा। दूसरा भजन गाते हुए-"सीता राम सीता सीता राम कहिये , जाही बिधि राखे राम ताहि बिधि रहिये", अपने तन- मन से प्रभु का  नाम लेते हुए  वे राधा वल्लभ मंदिर के सामने पहुँचते हैं और पुनः समवेत स्वर में घंटे शंख की ध्वनि और आरती द्वारा  आस पास के लोगों को जागते हुए  प्रसन्नता से बिना किसी लाज के नाचते गाते हुए आगे बढे जा रहे हैं।   मंदिर की देहरी पर धुप दीप पूजन कर और दीपक  जला कर वे  मुरलीधर मंदिर पहुंचे .इस तरह वे चलते जाते हैं। दशकों से इस प्राचीन परम्परा का निर्वाह करते हुए  पूजन कर  प्रशाद बाँटते हुए  वे आगे की मंदिरों की और उसी उत्साह से बढ़ रहे हैं जिस उत्साह से उनके पूर्वज नियमित परंपरा का निर्वाह करते थे ।

शहर में रहने वाले  शर्मा जी प्रातः काल की ऐसी मनोरम छटा का पूरा आनंद ले रहे थे  उन्हें धन से ज्यादा तन और मन की शक्ति जगाने वाला प्रभात भ्रमण आनंददायी प्रतीत हो रहा था.उनके लिए यह एक आश्चर्य का विषय था कि भारी बरसात हो या कड़ाके की सर्दी  कम से कम पचास से सत्तर  स्त्री- पुरुष की टोली  मंदिरों के सामने अवश्य ही अपस्थित रहती है प्रातःकाल  कीर्तन भजन यह हम भारतियों की परंपरा रही है जो की शहरीकरण में विलीन होती  जा रही है.ऋषियों ने इस परंपरा को धर्म से जोड़ कर प्रस्तुत किया था जिसे आज के मॉडर्न युग में मोर्निंग वाक का नाम दिया गया है.  

शर्मा जी प्रातः दस बजे से पहले कभी सोकर नहीं उठते थे अब सेवा निवृत होकर  भी सुबह पांच बजे उठ जाते हैं यह उनकी पत्नी और परिवार के लिए आश्चर्य जनक प्रसन्नता का विषय था। नरसिंहपुर में इस तरह की प्रभात फेरी  महानगर से आने वालों के लिए कोतुहल का विषय थी। जब शर्माजी  महानगर में रहते थे तब उनकी सुबह उनके बच्चों  के पॉप म्यूजिक शुरू होती थी.भागम भाग की जिंदगी - तैयार हुए टाई  कोट पहना और कार निकाल कर जो रवाना हुए तो फिर तो रात में थक हर कर सीधे घर आकर बिस्तर पे पड़ जाते। उनके बच्चे भी लेट नाईट टीवी सभ्यता का अनुसरण करते हुएजल्दी नहीं सोते और न ही जल्दी उठते.

 विभिन्न स्थानों से आये साधू संतों ने नरसिंहपुर को एक तीर्थस्थल की गरिमा से भी सुशोभित किया गया है .उन्होंने इस शहर के लोगों की मनोशुद्धि के लिए हरसंभव प्रयास किये है जिनमे से एक अद्वितीय प्रयास रोज सबेरे रामधुन गाते हुए प्रभात फेरी निकलाने की परंपरा बनाना है।सबेरे-सबेरे रामधुन की अलख से वातावरण सात्विक हो जाता है। यह क्रम जन मानस की मनोवृत्ति को भक्ति भाव के प्रवाह में बहाने में सहायक  है।नरसिंहपुर शहर में लगभग हर चौराहे पर एक मंदिर स्थापित है। भगवन नरसिंह का विशाल मंदिर और माँ नर्मदा और विलक्षण साधू संतों का इस शहर को दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हैं।

प्रभात फेरी में सुबह की सैर करने वालो की दिन पर दिन वृद्धि ही हो रही है दशकों से निकल रही प्रभातफेरी की परंपरा का पालन करने वाला नरसिंहपुर शहर भक्ति भावना शांति और सद्भाव का सन्देश है। नरसिंहपुर नगर  की हर सुबह बड़े धूमधाम से रामधुन के साथ प्रभात फेरी से शुरू होती है। प्रातःकाल की खुली स्वच्छ वायु फेफड़ों में रक्त शुद्ध करने की क्रिया को प्रभावशाली बनाती है। इससे शरीर में ऑक्सीहीमोग्लोबीन बनता है, जो कोशिकाओं को शुद्ध ऑक्सीजन पहुँचाता है  अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ  मिनट निकाल हम सभी को अपने तन और मन को स्वस्थ रखने हेतु संकल्प ले कर  थोड़ा-सा समय प्रदूषण मुक्त सुबह की ठंडी सुहावनी हवा में, जो प्रकृति ने हमें उपहारस्वरूप दी है का लाभ उठा  कर जीवन में संजीविनी शक्ति सा संचार करना चाहिए । मन में शुद्ध विचार तभी आते है जब शुद्ध वातावरण शुद्ध आबोहवा हो. शोध के अनुसार प्रातः भ्रमण अवसाद से मुक्ति दिलाने का भी एक सफल उपाय बताया गया है।





तमसो मा ज्योतिर्गमय






'परिधि' या'पिंजरा' वह होता है जिसमे पालतू पशु- पक्षियों को बंद किया जाता है .'अध्यात्मिक' अर्थ में पिंजरा 'शरीर' को भी कहा जाता है जिसमे 'आत्मा' कैद होती है पिजरे में  बंद सभी जीव जंतुओं को 'मुक्ति की आकांक्षाहोती हैकुसंगति हमेशा कुसंस्कार- हिंसा, नशा,स्वार्थ,रुढ़िवादी विचार को जन्म देती है संस्कार पीढ़ीयों से हस्तांतरित होते हैं. कुसंगति ही सभी दुर्गुणों की जड़ होती है.कुसंस्कारों का परिमार्जन प्रायश्चित्त और पश्चाताप से भी संभव नहीं. कुसंगति के सामान नरक नहीं
आधुनिक जीवन शैली को जीता हुआ मानव  कर्ज,  कुरीतियाँ, कुसंस्कार , झूठ , छल कपट आदि कई बंधनों में बंधा होता जिससे  मुक्त होने  की आकांक्षा तो वह रखता है परन्तु भरसक प्रयत्नों के बाद भी मुक्त नहीं हो पातासर्वेश्वरदयाल सक्सेना की  कविता इस सन्दर्भ में - 


            
चिडि़या को लाख समझाओ,
कि पिंजड़े के बाहर
धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है,
वहॉं हवा में उन्हें
अपने जिस् की गंध तक नहीं मिलेगी।
यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,
पर पानी के लिए भटकना है,
यहॉं कटोरी में भरा जल गटकना है।
बाहर दाने का टोटा है,
यहॉं चुग्गा मोटा है।
बाहर बहेलिए का डर है,
यहॉं निर्द्वंद्व कंठ-स्वर है।
फिर भी चिडि़या
मुक्ति का गाना गाएगी,
मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी,
पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी,
हरसूँ ज़ोर लगाएगी
और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।


भौतिकवाद या ९९ के फेरे ने (पैसे कमाने की प्रतियोगिता ने ) आध्यात्मवाद के अस्तित्व को मिटा दिया है.  दैवीय चेतना , संवेदना कितनी ही बार अंदर की आध्यात्मवाद के मजबूत घेरे से बाहर नहीं जाने हेतु हमें मार्ग दिखाती है . आध्यात्म रुपी इस लक्ष्मण रेखा को पार न करने के संकेत देती है.हर  बार यह अनुभूति कराती है कि  -- "इस घेरे के बाहर दुनिया कठोर है.निष्ठुर है.ईश विनय की परिधि में ही रहो
यहां ईश्वर रखवाला है. निस्वार्थ प्रेम करने वाला है.सत् -चितआनंद प्रदान करने वाला है.इस परिधि केबाहर रोजी रोटी के लिए संघर्ष है.अपना जीवन बचने,अस्तित्व बनाने के लिए कठोर संघर्ष है. कदमकदम पर नकाब पहने हुए चेहरे ,जो लुटेरे हैं ,शिकारियों का भय है.ऐसे बहुरूपियों की हाथों की कठपुतली मत बनो. मृग तृष्णा में मत राह भूलो.ईश राह में स्वतंत्रता है,शांति, प्रेम आनंद है. भौतिकवाद रुपी सोने के पिंजड़े में कैद मत हो.भौतिकता की प्रतियोगिता में मानव मूल्यों की अवहेलना करनी पड़ती है." परन्तु  जीवन -मृत्यु ( आध्यात्म और भौतिकवाद) के प्रश्न पर भी मनुष्य परमात्मा के निस्वार्थ प्रेम आनंद और आध्यात्मवाद की परिधि से निकल जाता है और भौतिकवाद के पाश में जकड जाता है.

यह  सत्य है कि मनुष्य  सामाजिक प्राणी है.परन्तु यह  भी असत्य नहीं है कि वर्तमान परिद्रश्य में  'सभ्य'  उसे ही कहा जाता है जो सामान्य व्यवहारिक बुद्धि का सदुपयोग नहीं करते हुए नित नवीन चतुर प्रयोगों को छल - कपट के साथ अपनी स्वार्थ -साधना  करता  है.जो भौतिकवाद समाज में सफल है.

जीवन की दौड़ में सही को सही और गलत को गलत कहने वालाव्यक्ति  'कूटनीति' और 'राजनीति' जानने वाले व्यक्ति की तुलना में कहीं दूर रह जाता है.मानव की  स्वार्थवादिता ने  मानवीय भावनाओं और संवेदनाओं को निर्बल करने की चेष्टा की है वहीं मानवीय रिश्तों के रूप को भी परिवर्तित किया है.सभी सुखी, निरोगी रहे ,विश्व का कल्याण हो प्राणीयों में सद्भावना हो" इस प्रकार के उच्च विचार रखने वाले अपने हितों की तिलांजलि देने वाले मानव के मूल स्वाभाव " परमार्थ " की रक्षा करने हमारे भारत के ही संत है .

भारत की इसी महान संस्कृति के कारण भारत को 'जगदगुरु' कहा  गया है. "तुलसीदासजी, मीराबाई, कबीरदासजी ,रहीम" आदि ने  सदप्रवत्ति- संवर्धन हेतु काव्य प्रतिभा  स्वर-साधना का उपयोग किया था.परन्तु हम आज यही मार्गदर्शन या जीवन अनुभव-सार अनदेखा कर चुके हैं.        

 "परहित सरिस धर्म नहीं भाई,परपीड़ा सम नहीं अधमाई" -जैसे सुविचार और सुसंस्कार रखते हुए भी कलयुग के प्रभाव में आता  है और अपने अमूल्य मानव जीवन को भौतिकता की अंधी दौड़ में बिता कर नष्ट क़र देता है .मेरी ईश विनय यही है कि विश्व को शांति का मार्ग दिखने वाला  'भारत 'पुनः " असतो मा सद्गमयतमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्युर्मा अमृतं गमय " के पथ पर अग्रसर होवे तथा हमारे देश में पुनः  सुसंस्कार और सुज्ञान का प्रकाश फैला दे.