Sunday, August 5, 2012

मुक्ति

"मुक्ति का शंखनाद"



            सुंदर कांड में हनुमानजी के लंका में प्रवेश करते समय जब प्रभु श्री रामभक्त हनुमानजी के बल का अनुमान लेने सुरसा  को भेजा गया तब हनुमान जी छोटे से मच्छर का रूप बना कर (मसक समान रूप कपि धरी लंकहि चली सुमिरि नरहरी ) सुरसा के विशाल मुख से बहुत आसानी से बाहर निकल आते हैं. वास्तव में सुरसा श्रीराम भक्त थी. सुरसा हनुमान जी को राम भक्त के रूप में पहिचान कर, उनके बुद्धि बल का अनुमान कर उनकी बहुत प्रकार से स्तुति करती है और कहती है -" तूल न ताहि सकल मिली जो सुख लव सत्संग." अर्थात मात्र एक क्षण का सत्संग और सम्पूर्ण जीवन में भोगे गए संसार के समस्त सुखों को अगर एक तराजू में तौला जाये तो वो समस्त सुख मिलकर भी उस एक क्षण के सत्संग- सुख की बराबरी नहीं कर सकते .इसी सन्दर्भ में मेरी एक सम्यक कहानी यहाँ प्रस्तुत है. 
               एक परिवार में सभी सदस्य गुरु के प्रति श्रद्धा , भक्ति व विश्वास रखने बाले बहुत ही ईश्वर परायण थे. उस परिवार की लड़की का विवाह धोके से एक ऐसे लड़के से हो गया जो कि नालायक था . अगर गुरुदेव महाराज आते तो वो उनके न तो दर्शन करता न ही उन्हें प्रणाम करता. पूजन, आरती सत्संगति , ध्यान , भजन होता तो वह ताश और शराब में अपना यह अमूल्य सौभाग्य नष्ट करता .चूँकि लड़कियां परिवार के प्रति भावनात्मक और संवेदनशील ज्यादा होती हैं और लड़कों की अपेक्षा उन्हें परिवार जनों का प्यार अधिक प्राप्त होता है. अतः उस लड़के को परिवार ने लाख बार समझाया कि हमारे
गुरुदेव जैसे 'गुरु' इस जगत में मिलना असंभव हैं जिन्होंने निस्वार्थ रूप से अहेतुकी कृपा कर हमसे हमारा साक्षात्कार करवाया. "में कौन हूँ?" इसका आभास करवाया. इस कठोर जगत में हमें गुरुदेव प्रभु की कृपा और आध्यात्मवाद की मजबूत लक्ष्मण रेखा में ही रहना है यहाँ उच्च विचारों का सत्संग , सकारात्मक चिंतन और कल्याण है जहाँ हम माता- पिता की गोद में बालक समान हैं.

                                 हालाकि तुम्हारे महानगरीय जीवन में भौतिक आकर्षण का सागर है पर यहाँ आत्मिक आनंद का सागर- गागर में है. इस इस घनिष्ठ प्रेम की लक्ष्मण रेखा को पार मत करो इस रेखा के उस पार झूठ , छल, कपट, निम्न विचारों और रोटी , कपडा, मकान जैसी आधारभूत समस्याओं के लिए कुसंगति है संघर्ष है. इस आत्मिक आनंद के सागर को त्याग कर उस मृग तृष्णा के पीछे मत भागो जो केवल दूर से ही आकृष्ट करती है और पास जाने पर जल नहीं मरुस्थल होती है. पर इन बातो उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता.वाक पटु होने की वजह से उसका एक ही तर्क रहता कि में गुरुदेव की सत्संगति में रहने योग्य नहीं हूँ..
                                  
                   यह समस्या जब गुरुदेव के समक्ष रखी गयी तब उन्होंने अति प्रेममय मधुर वाणी से कहा - जब वो आये मुझे बता देना. गुरुदेव महाराज उसके पास गए और मंत्रमुग्ध करने वाली वाणी से उससे " ॐ नमः शिवाय" का ध्यान करने को कहा . उसने उसने कहा नहीं करते . फिर वही वाक पटुता से तर्क कर टाल दिया -' मेने जीवन में बहुत से पाप किये हैं में इस योग्य नहीं हूँ कि आपके सम्मुख भजन पूजन या ध्यान करूँ '.                   

                   परन्तु गुरु तो गुरु ही होते है वो भागने लगा भागते भागते उसे जोर की ठोकर लगी और उसने कहा 'ॐ नमः शिवाय'. भक्त वत्सल , कोमल स्वाभाव, कृपालु गुरु भगवान् ने उसे तार दिया और उसका पाप नाश कर उसके कुकर्मो के बन्धनों से मुक्त कर दिया. वह शिव का परम प्रिय भक्त बन गया और शिव जी कि कृपा से परिवार सहित सभी तीर्थ स्थलों के दर्शन कर आया और पूरा परिवार गुरु के प्रति शरण , समर्पण और यथासामर्थ्य साधन भजन और परम आनंद में मग्न हो गया . तो ऐसी होती है एक क्षण भी सत्संग में बिताने की महिमा.

                   
                                  कदम कदम पर जबठोकरे लगी तो प्रभु नाम याद आया ? वही एक आलंबन बना? अंत में, परम सत्ता को स्वीकार करना ही पड़ता है. श्रीकृष्ण भगवान ने गीतामेँ कहा है की मैँ ही समस्त जीवों में, निर्जीवो में समस्त संसार, ब्रह्माण्ड और समस्त अस्तित्वों में हूँ. 'मैँ ही सब प्रकारसे देवताओँ और महर्षियोँ का उत्पादक,संरक्षक ,शिक्षक हूँ'- 'अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः' (गीता १०.२)।अर्जुनने भी विराटरुप भगवानकी स्तुति करते हुए कहा है कि 'भगवन्! आप ही सबके गुरु हैँ'- 'गरीयसे' (गीता ११.३७); 'गुरुर्गरीयान्' (गीता ११.४३)।
                               

                            अतः भगवान् श्रीकृष्ण को गुरु और गीताको उनका मंत्र,उपदेश मानना चाहिए। गुरु तत्त्व- जगत में शरीर के रूप में नहीं आते बल्कि आत्म ज्योति या शिव स्वरुप में हम सभी के आस पास ही हैं . आवश्यकता पड़ने पर सशरीर किसी भी रूप में हमारे सामने साक्षात् प्रकट होकर हमारी रक्षा करते है. जिन्हें गुरु नहीं मिलता उनके लिए जीवन एक संघर्ष होता है. 

                      जिन्हें गुरु मिल गया उनके लिए जीवन एक खेल होता है. गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलनेवालों के लिए जीवन एक उत्सव है.गुरु-तत्त्व सबके भीतर विराजमान है. हालाकी सबसे पहले गुरु हमारे माता - पिता होते है . परन्तु मूलमेँ भगवान ही सबके गुरु हैँ. यह गुरु-तत्त्व जिस व्यक्ति,शास्त्र आदिसे प्रकट होता है,वह 'गुरु' कहलाता है.  

                 
                     एक और जहाँ श्रीकृष्ण ने अपने विश्वरूप में ' योग साधना' को मानसिक तनाव से मुक्ति का साधन बताया है तो वहीँ दूसरी और शिव पुराण में ज्योतिर्लिंग दर्शन को मुक्ति का सबसे सरल मार्ग बताया है. ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने से मुक्ति का रास्ता प्राप्त हो जाता है. ज्योतिर्लिंग कथा सुनने से भी भक्तों को वही लाभ होता है जो ज्योतिर्लिंग दर्शन से होता है. महाभारत की कथा के अनुसार पांडव केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद अपने पाप से मुक्त हुए थे. बुद्ध दर्शन के अनुसार दुखों से मुक्ति के तीन उपाय है - पहला पापों से, जहां तक संभव हो, बचो. दूसरा- जीवन में जितने भी पुण्य कर्म कर सकते हो, करो एवं तीसरा -अपना मन, चित्त निर्मल रखो.'
                 
                       यह तो संगति ही है जो शराबी मित्र के पास जाओ तो शराब पीना सिखा देती है संत महात्माओ के पास जाओ तो वे अच्छे काम करना सिखा देते हैं संगति का प्रभाव दुर्जन को भी सज्जन बना सकता है वेसे ही सज्जन को दुष्कर्म में फंसा सकता है जेसे -गेहू के साथ घुन पिस जाती है.                        

                        सत्संगति यश, मान और प्रगति लाती है वहीँ कुसंगति विनाश और पतन के गर्त में धकेलती है जिसका प्रभाव न केवल यह पीढ़ी वरन आगे आने वाली पीढ़ियों को भी भुगतना पड़ता है.सत्मार्ग पर चले और सत्कार्य करे,और दैहिक , दैविक, भौतिक दुखो से मुक्त हो .
इसी प्रेरणा के साथ आपका दिन शुभ हो -----------


5 comments:

  1. कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्

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  2. दृष्टान्त उत्तम है

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  3. Very good article...nice to read it

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  4. सभी सुधीजनों की प्रतिक्रियाएँ और प्रोत्साहन हेतु हार्दिक धन्यवाद.

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